तमाम मिन्नतों के बाद,
जब बिछड़ते हुये दी थी तुमने,
हां कहकर साथ हो जाने की इजाजत,
सो... कैसे लौटता मैं पीछे,
उसूल नहीं था मेरा?
शायद तुम्हारी ताकत भी जाती रही थी,
जो बढ़कर पकड़ लेती हाथ मेरा।
चलो तन्हाई में ,
तय करेगें हम दोनों,
इस जिद् में,
तुम्हें क्या मिला?
और मैनें क्या खोया?
रविकुमार बाबुल
बहुत ही अच्छी रचना....
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