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Sunday, July 31, 2011

जिन्दगी इश्क की



हुश्न ऐसा हो, जो नुमाइश ना भी हो, तो दिखता हो,
जश्न ऐसा हो, जो साकी... जिन्दगी इश्क की (Complete)


जिन्दगी

मेरे अहसासों की उस हवा
की महक सी है मेरी हस्ती
कोशिश करूँ तमाम पर
हिचकोलो से गुजरती हुई
चलती है ये मेरी कस्ती
तमाम उलझनों से जुझते
जिन्दगी की राहों से अनजान
ढलती हुई जीवन की मस्ती
ख्वाहिशो की अभिलाषा सी
सच्चाई तलाशती हुई है
चाँद लम्हों की मेरी बस्ती|


- दीप्ति शर्मा

Saturday, July 30, 2011

आँखे ये रोज बरसती हैं


आज ये दुनिया रंगहीन क्यूँ लगती है ?
आज ये हवा भी नटखट नही होती है ?
मेरी बातें लोगों को अर्थहीन क्यूँ लगती है ?
ये नींद भी आँखों से दूर दूर क्यूँ रहती है ?
पास नही तू फ़िर भी, क्यूँ ये चोरी करती है ?

दिल का तो पता नही, बहुत दिनों से गायब है,

स्वार्थी दुनिया

पंक्षियो  की कौतुहल आवाज़ से मेरी आँख खुली | मौसम सुहावना था | पवन की मंद महक दिवाना बना रही थी | बाहर लॉन मै कई पंक्षी चहक रहे थे मौसम का आनंद लेने के लिए मैने एक चाय बनायीं और पीने लगी | अचानक देखा की कई कुतो ने एक तोते को पकड़ लिया और उसे बड़ी मर्ममय  के साथ मारने लगे | मानो मेरे तो होश उड़  गये मैने पास मै पड़ा एक डंडा उठाया और उन्हें भगाया | वे तोते को वही छोड़कर भाग गए | मैने तोते का इलाज किया उसे पानी पिलाया लेकिन तोता २-३ घंटे से ज्यादा नहीं जी सका | मै उसे नहीं बचा सकी इस बात का बहुत दुःख है | मैने देखा की किस तरह उन कुतो ने अपनी भूख  मिटाने के लिए एक मासूम सुन्दर तोते को मार दिया | और मैने महसूस किया कि इस मतलबी दुनिया मे कुछ लोगो के स्वार्थ को पूर्ण करने के लिए ना जाने कितने मासूमो को अपनी बलि देनी पड़ती है |

- दीप्ति शर्मा 

Friday, July 29, 2011

ख़ुशी और दर्द



ये दोस्त भी कभी कभी, अजीब सी बातें किया करते हैं,
लिखो तो ख़ुशी पर लिखा करो, अक्सर कहा करते हैं ,
उन्हें पता है की कोशिश तो, हम भी यही किया करते हैं,
पर क्या करें हम भी, जो ये पन्ने बस दर्द बयां करते हैं॥


शायद गुरूर होगा



कभी थोड़े भाव बढ़ाकभी आसमान पर पहुंचा दिया करते हैं,
सपने देख नहीं पाता कोईऔर वे तोड़ पहले दिया करते हैं,
शायद गुरूर होगा इस परकी उन पर हम लिखा करते हैं,
तरश नहीं आया उन्हें हम परजो वो रोज किया करते हैं॥


ज्यूँ मैं जला हूँ सनम तुम जलना मत

मेरी चाहत में  नियत को बदलना मत ,
ज्यूँ मैं जला हूँ सनम तुम जलना मत

लहरें खामोश अगर हैं तो क्या हुआ ,
बिना कश्ती के,समुंदर में ,उतरना मत

गुलशन में बहारों का मज़ा लेना मगर ,
भंवरे को गुल से दूर कभी ,रखना मत

मौसम का मिजाज़ न बदल जाए कहीं
चंद शोहरत पा कर कभी ,मचलना मत

नकाब पोशों का शहर है आम यहाँ ,
बेकरारी में यकीन कभी , करना मत ,

रूह को समझ ले अब तो मुसाफिर
सफ़र में ,सिर्फ चेहरों को ,परखना मत

Thursday, July 28, 2011

ब्लॉग की प्रथम वर्षगांठ

आज मेरा सफ़र एक सीढ़ी चढ़ गया , बहुत कुछ पाया यहाँ  रहकर मैंने  , कितना कुछ सीखा तो आज इस अवसर   पर  बस यही कहना चाहती हूँ - 
                                         
                                                    
आज ब्लॉग आकाश में
असंख्य तारों के बीच
चाँद सा प्यार दिया मुझे 
इस ब्लॉग परिवार ने |
                                                      
हर सुख दुःख में 
साथ निभाया है और
बहुत कुछ सिखाया है 
इस ब्लॉग परिवार ने |

एक साल गुजर गया 
पर यूँ लगता है जैसे 
सदियाँ बीत गयी हो 
आप सब का साथ पाकर |

लगते हैं यहाँ सब अपने 
नही यहाँ गैर कोई
बहुत सा प्यार दिया 
इस ब्लॉग परिवार ने |

गलतियाँ जब हुई 
उचित मार्गदर्शन कर 
सही राह दिखाई  
इस ब्लॉग परिवार ने|
                                                            
जफ़र पथ पर चलकर
मैं अब साथ चाहती हूँ 
हरदम आशीर्वाद चाहती हूँ  
इस ब्लॉग परिवार से |

छोटो का स्नेह मिले  
बड़ों का आशीष बस
इतना अधिकार चाहती हूँ 
इस ब्लॉग  परिवार से |

- दीप्ति शर्मा


                                                      


www.deepti09sharma.blogspot.com

Wednesday, July 27, 2011

तुम

मेरे गीतों का संगीत हो तुम
सुर दिया मेरे स्वरों को जिसने
लवो पे छाई कलम से निकली
वो मनमुग्ध गजल हो तुम
सजदा करूँ जिसे दिल से
वही प्यार की कलि हो तुम
उम्मीद करूँ जीने की मैं 
जिसके हंसी दामन में अरे
ऐसी  मेरी हसरत हो तुम
जीती हूँ जिसके धडकने से
दिल की वही धड़कन हो तुम

- दीप्ति शर्मा 
http://deepti09sharma.blogspot.com/2010/07/tum.html

Tuesday, July 26, 2011

ये तेरा दरबार न था


यूँ जीने की ख्वाहिस ना थी,
यूँ हँसने का एतबार न था,
बस इक पगली के जाने पर,
मुझे रोने से इनकार...ये तेरा दरबार न था (Complete)

Friday, July 22, 2011

तुम हो जाओ मेरी


किसी ने किसी को मांगा था,
मिन्नतें खुदा से करके,
जब हार गया खुदा,
उसने उसी से, उसको मांग लिया था?
आज मैंनें भी किया यही,
तुम्हारे साथ, तुम्हीं को मांगने,
खुदा की देहरी पर दी दस्तक मैनें,
वह यकीन दिला दे तुम्हें,
मेरी वफा का।
तुम सदा-सदा के लिये हो जाओ मेरी,
फिर चाहना खुदा का हो या चाहे तुम्हारा?

रविकुमार बाबुल
ग्वालियर

Thursday, July 21, 2011

लब तक खींचा अरु छोड़ गयी


मैं जोकर था क्या सर्कस का,
देखामुस्काया अरु भूल गयी।
या तीर था तेरे तरकश का,
लब तक खींचा अरु छोड़ गयी॥

मैं तो अंकुर हूँ जीवन का,
संसार तेरा भर देता मैं।

Wednesday, July 20, 2011

आदत सी हो गयी है

Neeraj Dwivedi


अब आदत सी हो गयी है, यूँ ही मुस्कुराने की,
यूँ ही लिखने की, लिखते चले जाने की,
सारी राहें बन्द कर दीं, उनके याद आने की,
यूँ ही जीने की, चलते चले जाने की ।

Saturday, July 16, 2011

नदी

                                                    
कलकल करती सब कुछ सहती,
कभी किसी से कुछ ना कहती ,
अनजानी राहों में मुड़ती बहती ,
चलती रहती नदियाँ की धार|


लटरें भवरें सब हैं सुनते ,
साथ में चलती मंद बयार ,
कौतूहल में सागर से मिलती पर ,
चलती रहती नदियाँ की धार |


जुदा हो गयी हिम से देखो ,
तट से लिपट बहा है करती,
सुनकर वो मस्त बहार,


फूल पत्तियाँ जलज औ पाथर,
पथ में आए बार बार ,
अपने मन से हँसती गाती,
चलती रहती नदियाँ की धार | 
 
दीप्ति शर्मा
www.deepti09sharma.blogspot.com

Wednesday, July 13, 2011

अस्वस्थता के समय लिखी कुछ क्षणिकायें उम्मीद है आप सभी को पसंद आएगी.. .......संजय भास्कर

आप सभी ब्लॉगर साथियों को मेरा ........सादर नमस्कार ............अस्वस्थता के कारण  काफी दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था पर अब  आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ । अस्वस्थता के कारण आराम करते समय हमेशा ही कुछ लाइन दिमाग में आती थी जिन्हें क्षणिका के रूप में पढवाता हूँ उम्मीद है आप सभी को पसंद आएगी.........!
 



(1.)  गजब

अनपढ़ विधायक
के साथ
गजब हो गया
पता चला वह एजुकेशन 
मिनिस्टर हो गया !

 
( 2.)  कमाल
 21 वी सदी में देखो
लोकतंत्र का कमाल अब पढ़े लिखे भी
वोटिंग मशीन पर
लगाते है अंगूठे से निशान !

 
(3.)  अवार्ड 

आज कुछ अध्यापक
न स्कूल जाते है
और न कभी पढ़ते है
करके चापलूसी अधिकारियो कि
बेस्ट टीचर अवार्ड पाते है !

 
( 4.)  फिल्मे 

आजकल चल रही फिल्मे
कर रही है कमाल
जिन्हें देख शर्म भी खुद
शर्म से हो रही है लाल ..........!

 
-- संजय भास्कर

Wednesday, July 6, 2011


साजिश

सच है, साजिशन रखा है मैंने,
तेरे दिये जख्म को हरा?
सोचता हूं,
जख्म भर गया तो,
जिंदगी जीने का ,
मकसद ही,
जाता रहेगा?


  • रविकुमार बाबुल 
  • ग्वालियर

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पल

कुछ पल मेरे नाम भी लिखो।
थोड़ी मुहब्बत मेरे नाम भी लिखो।

मुश्किल है तुझसे अब दूर जाना,
कभी करीब, मेरे नाम भी लिखो।

तेरी चाहत भी महफूज रहे, लेकिन,
अपना चाहना, मेरे नाम भी लिखो।

मैं बिछा दूंगा जिंदगी अपनी मगर,
वो सफर मेरे नाम भी लिखो।

कह कर क्या, देता खुशियां मैं,
गम सारे मेरे नाम भी लिखो।


  • रविकुमार बाबुल 
  • ग्वालियर


Tuesday, July 5, 2011

मेरे शब्दों को रिहा कर दो।


तुम मेरे गुनाहों को इस कदर फना कर दो,
जो कुछ है सवाल, उनमें जवाब भर दो।
मैं जिन्दगी की परतें न कभी खोलूंगी,
इस अनसुने जहाँ से कुछ न बोलूंगी,

बस तुम साथ मेरे इतनी वफा कर दो.....
                           मुझे आजाद न करो....लेकिन,
                           मेरे शब्दों को रिहा कर दो।

मेरी आंखों में चन्द कतरे बहते आंसू के,
मन में टीस उठाती, कुछ रिश्तों की गांठे।
और पाकर खोने की, कुछ उलझी-सी बातें।
जीवन में मिला, कितना मर्म छिपा है मुझमें,
मिले तमाम जख्मों को मैं कभी न तोलूंगी?

बस तुम मुझ पर इतनी दया कर दो.....
                        मुझे आजाद न करो....लेकिन,
                        मेरे शब्दों को रिहा कर दो।


  •  कोमल वर्मा

Sunday, July 3, 2011

जीवन ढूँढ़ा करती हूँ


आदरणीय ब्लॉगर,
कभी बीपीएन टाइम्स में  मेरी  सम्पादकीय सहयोगी रहीं, सुश्री कोमल वर्मा काफी अच्छा लिखती है, यह मेरा मानना है, सुश्री कोमल वर्मा ने सदैव इससे इंकार किया है। खैर ... आपकी अदालत में आने का यह फैसला मेरा व्यक्तिगत है। http://gwaliorkanak8.blogspot.com/ को पढ़कर आपको अपनी राय देने में आसानी रहेगी। आपके प्रत्युत्तर से किसी एक का टूटना तय है, या तो उका भ्रम टूटेगा या फिर मेरा विश्वास? आप अपनी प्रतिक्रिया http://gwaliorkanak8.blogspot.com/  पर देने का कष्ट करें। प्रस्तुत रचना उनकी डायरी में सबसे साधारण रचना के रुप में मैं मानता हूं, और आप......?
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चंचल हिरनी सी मैं जब,
कलियों से खेला करती थी।
तेरी खुशबू यादों की धूप बनी,
जिन किरणों का मैं पीछा करती थी।

कुछ होश नहीं था जीने का,
क्यूंकि जीने का ज्ञान न था।
मदमस्त जिन्दगी थी लेकिन
तब जीवन का अनुमान न था।

कुछ भौतिकता, कुछ मौलिकता,
और मुझको कुछ अपनापन मार गया।
फूलों की तुरपन में लेकिन,
हाथों में चुभ एक खार गया।

मुश्किल से उसे निकाला था,
जब सपनों को सच में ढाला था।
कब टहनी मेरे सपनों की टूट गयी,
और हकीकत मुझसे रूठ गयी।

अब और भटकती रहती हूँ,
जीवन को ढूँढा करती हूँ।
मौसम बदलें, मगर तकदीर नहीं,
ऐसे में कुछ पाने की उम्मीद नहीं।

क्या अब जीना सीख गयी मैं,
या फिर अब जीवन का ज्ञान हुआ।


  • - कोमल वर्मा


Friday, July 1, 2011

आखिर क्यूँ ?

                                                  


मंज़िल तो हैं सीधी पर 
रास्ते ये सारे मुड़े क्यूँ हैं ?
और तकदीर से ये
हमारी जुड़े क्यूँ हैं ?

जब होती नहीं कोई
भी मुराद पूरी तो 
दर पर ख़ुदा के 
इबादत को इंसा
के सर झुके क्यूँ हैं ?

ख़ुदा ना ले इम्तिहान
कोई अब हमारा 
तो कभी यूँ लगे कि
इम्तिहानों के सिलसिले 
रुके तो रुके क्यूँ  हैं ?

सुन ले ए ख़ुदा अब   
हमारी हर मुराद 
जब मुराद ना हो पूरी 
तो लगे कि अब 
ख़ुदा कि फ़रियाद में
ये हाथ खड़े क्यूँ हैं ? 

तेरी रहमत को ये ख़ुदा 
हम खड़े क्यूँ हैं ?
पाने को हर सपना 
आखिर हम अड़े क्यूँ  हैं ?

- दीप्ति शर्मा 

यादें


मेरे मौन ने,
कई बार चीख कर कहा था?
मुझे भी ले चलो,
साथ अपने ,
जैसे हवा ले जाती है,
खुशबू फूलों की?
नदी ले जाती है,
मिट्टी किनारे की?
धरती चुन लेती है,
आकाश से बरसती बूंदे?
किसके भरोसे सौंप दी तुमने,
अपनी तमाम यादें?
जब तुम नहीं हो सकती थीं,
हवा, नदी और धरती?
क्यूं मुझको अहसास दिया तुमने,
खुशबू, मिट्टी और बूंदों का?

रविकुमार सिंह
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http://babulgwalior.blogspot.com