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Sunday, July 3, 2011

जीवन ढूँढ़ा करती हूँ


आदरणीय ब्लॉगर,
कभी बीपीएन टाइम्स में  मेरी  सम्पादकीय सहयोगी रहीं, सुश्री कोमल वर्मा काफी अच्छा लिखती है, यह मेरा मानना है, सुश्री कोमल वर्मा ने सदैव इससे इंकार किया है। खैर ... आपकी अदालत में आने का यह फैसला मेरा व्यक्तिगत है। http://gwaliorkanak8.blogspot.com/ को पढ़कर आपको अपनी राय देने में आसानी रहेगी। आपके प्रत्युत्तर से किसी एक का टूटना तय है, या तो उका भ्रम टूटेगा या फिर मेरा विश्वास? आप अपनी प्रतिक्रिया http://gwaliorkanak8.blogspot.com/  पर देने का कष्ट करें। प्रस्तुत रचना उनकी डायरी में सबसे साधारण रचना के रुप में मैं मानता हूं, और आप......?
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चंचल हिरनी सी मैं जब,
कलियों से खेला करती थी।
तेरी खुशबू यादों की धूप बनी,
जिन किरणों का मैं पीछा करती थी।

कुछ होश नहीं था जीने का,
क्यूंकि जीने का ज्ञान न था।
मदमस्त जिन्दगी थी लेकिन
तब जीवन का अनुमान न था।

कुछ भौतिकता, कुछ मौलिकता,
और मुझको कुछ अपनापन मार गया।
फूलों की तुरपन में लेकिन,
हाथों में चुभ एक खार गया।

मुश्किल से उसे निकाला था,
जब सपनों को सच में ढाला था।
कब टहनी मेरे सपनों की टूट गयी,
और हकीकत मुझसे रूठ गयी।

अब और भटकती रहती हूँ,
जीवन को ढूँढा करती हूँ।
मौसम बदलें, मगर तकदीर नहीं,
ऐसे में कुछ पाने की उम्मीद नहीं।

क्या अब जीना सीख गयी मैं,
या फिर अब जीवन का ज्ञान हुआ।


  • - कोमल वर्मा


3 comments:

  1. बाबुल जी आप सही है, कोमल वर्मा जी की प्रस्तुत कविता में.. वाह क्या भावनाए है क्या रवानगी है. बेहतर साहित्य परखा है आपने. बधाई

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  2. कोमल वर्मा जी प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  3. क्या अब जीना सीख गयी मैं,
    या फिर अब जीवन का ज्ञान हुआ।

    NICE..

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