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Thursday, August 11, 2011

कुछ बातें मेरे मन की...........।

सावन जाने को है, बूंदों ने जिस्म पर ही नहीं, मन पर भी बहुत कुछ लिखा होगा, कुछ पढ़ लिये गये होगें, तो कुछ मेरे जैसे भी होगें, जिनका बहुत कुछ अनपढ़ा ही रह गया होगा? खैर... यह नसीब का मुआमला है, इसमें दखल की इजाजत, रिमझिम बरसती बूंदों के बीच सूरज की मानिन्द नहीं मिलनी चाहिये? जी... जब सावन में छाये मेघ किसी की हां की वजह बन जाये, और यही हां बूंदों से साजिश रच कर इंकार का सबब भी बने, तब ऐसे में आंखों से बरसती बूंदे, बरसते सावन में शर्मसार होने से जरूर बच गई होंगी? हां, अक्षरों के रूप में कागज पर बरसने से इन्हें कौन रोक सकता था....? सो.... उसकी हां कागज की किसी किश्ती की तरह भले ही बारिश में अपना स्वरूप खो बैठी हो, लेकिन उसके वजूद से किस आसमान को या दरिया को इंकार होगा? सो... उसकी तरह बिछड़ते सावन में कुछ बातें मेरे मन की...........।
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बिखरा हुआ यह सूनापन
दरिया सूखी, पोखर सूखे और सूखा मन।
कैसे कहूं, झूम के बरसा है सावन।

नींद का जब टूटा आंखों से रिश्ता,
सूरज आया, चांद भी उतरा था आंगन।

तेरी आंखों में नमीं, डूब गया मैं,
क्या किया गुनाह जो निकली नहीं जान।

सब छोड़ दूं, रिश्ता सबसे तोड़ दूं,
जब से भटका दर-दर यह अपनापन।

तुम आ जाओ तो दूर हो जाये,
मेरी जिन्दगी में बिखरा हुआ यह सूनापन।
रविकुमार बाबुल

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बारिश लिख
साथ हो उसका और तू बारिश लिख।
सावन में बस तू यह ख्वाहिश लिख।

उसने मेरे मुकद्दर में लिखा है तन्हाई,
खुदा तू मेरे आंखों में बारिश लिख।

कोई शोर नहीं, जब उसने तोड़ा दिल,
सावन में मेघ, तू ऐसी आतिश लिख।

तुम हो जाओ मेरी, जो न बनो,
तब नसीब में कजा की गुजारिश लिख।

अपना मुकद्दर बना लूं उसको, चाहा मैनें,
उसके दिल भी कुछ ऐसी ख्वाहिश लिख।

रविकुमार बाबुल

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  शर्मसार
तुम्हारे दिये जख्म,
बन कर अश्क,
जो बह निकले मेरी आंखों से,
डूब जाती,
सारी कायनात।
वह तो अच्छा हुआ,
मैं पी गया खारा पानी,
और बचा लिया,
तुम्हें शर्मसार से।
रविकुमार बाबुल

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सफर
आज फिर तुम मिले,
आज फिर मैं तन्हा रहा।
बारिश ने भी रोकना चाहा तुम्हें,
मेरी तरह मगर,
तुम्हारा सफर,
तय रहा।
रविकुमार बाबुल
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