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Saturday, June 25, 2011

अपराधी


तुमने ही कहा था कभी,
जो प्रेम छिपाये  वो अपराधी।
और जब मैंनें ,
जतला दिया,
मुझे है प्रेम तुमसे,
तब भला क्यूं,
तुम्हारी निगाह में,
मैं अपराधी हो गया?

  • रविकुमार सिंह

4 comments:

  1. वो तो पहले, अपराधी माना किये |
    अपना दुश्मन जाना किये |
    उनकी भलमनसाहत थी कि बोले थे नहीं ||

    ये तो दिखावा है उनका --
    मुस्करा रहे हैं चुपचाप
    देखो बहाना किये ||
    ठाकुर बहुत खुश हो रहा होगा --

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  2. अपराधी सब हो गए है रवि जी, ये ता अच्छा है सजा नहीं मिली अपना बनाने ki ,अच्छे शब्द बधाई.

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  3. आदरणीय रविकर जी,
    यथायोग्य अभिवादन् ।

    जी... मुझसे जो भी अपराध हुआ उसके लिए मेरा मुंसिफ ही जिम्मेदार था। सजा वह कोई सुना देता तो सुकूं आ जाता, लेकिन गुनाहगार ठहरा दिया, सजा दी नहीं? भला ऐसे में न तो कोई ठाकुर खुश हो सकता है, और ऐसे में दुश्मन ही मान लिया हो उसने मुझको पर मैं कैसे रोने देता उसको, सो... शायद वह मुस्कराती दिखी हो आपको?

    रविकुमार बाबुल
    ग्वालियर

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  4. आदरणीय कुश्वंश जी,
    यथायोग्य अभिवादन् ।

    जी... आपने सही कहा कि हमारे अपराध की कोई सजा हमें नहीं मिली। वैसे सच कहूं यह सजा से कमतर ही कहां है, कि आज तलक इश्क में, उसकी बेरूखी की अदालत से रिहा ही कहां हुआ हूं? ... चाह है वह कोई भी सजा सुना दे, पर अपना तो कह दें?

    रविकुमार बाबुल
    ग्वालियर

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