पीड़ा
कब मांगा था मैंने,
तुमसे तुम्हारा जिस्म?
कब की थी चाह या कोशिश
तुम्हें छूने की मैंने?
चाहा था तो बस इतना,
तुम्हें इतना पवित्र रख सकूं?
तुम्हारी पूजा भी कर लूं,
तुमसे ही मन्नतें भी मांग सकूं?
लेकिन देर से समझा मैंने,
मंदिर में किसी मूर्ति का खण्डित होना,
कितनी पीड़ा देता है,
आस्था को?
आज मेरा विश्वास भी
उतना ही दर्द दे गया मुझको,
तुम्हारे साहित्यिक दिल,
और पढ़े-लिखे दिमाग के बावजूद,
जब मैं पूरा का पूरा अनपढ़ा रह गया?
रविकुमार सिंह
http://babulgwalior.blogspot.com/
जब मैं पूरा का पूरा अनपढ़ा रह गया? waah! bhut hi gahan chintan krati rachna...
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