Tuesday, March 13, 2012
हिन्दी कविता और हम - HINDI KAVITA AUR HUM: परछाई के खातिर कब तक.... सूरज को पीठ दिखाऊंगा
हिन्दी कविता और हम - HINDI KAVITA AUR HUM: परछाई के खातिर कब तक.... सूरज को पीठ दिखाऊंगा: मजबूरी की मंजूरी है या मंजूरी की मजबूरी है ख्वाबों की हकीक़त से ये जाने कैसी दूरी है टूटा- चिटका सच बेहतर है उजले उजले धोख...
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पहाड़ साले सुख गए है .... कोई पत्ता हरा नहीं है .... ऐसी क्यूँ खामोश दुपहरी .... अब तक कोई मरा नहीं है
ReplyDeleteरेंग रेंग कर चलने वाले.... छाव ढुंढ कर सिमट गए है .... गरम हवा की इन लहरों में ... सन्नाटे भी लिपट गए है
छोटी सब्जी की बगिया से .... पीले पत्ते झाँक रहे है ..... बाहर जाने की ख्वाहिश में ... बच्चे खिड़की से ताक़ रहे है
बर्फ पतीले में जमते है .... मटके अब न प्यासे है .... ऑफिस में बैठे बाबु की .... अलसाई सी आँखें है
wah bhai wah
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