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Sunday, March 25, 2012

रिश्तों की आग बुझाने बैठे हो तुम


दोपहर में बुझा-बुझा सा है सूरज आज।
देखा जब, टूटा दीपक का ख्वाब आज।

कल अंधियारा सौंपा था उसने मुझको,
और पराया हुआ अपना ही साया आज।

रिश्तों की आग बुझाने बैठे हो तुम,
मैंनें इक चिंगारी सुलगाई  है आज।

कुछ दूरी थी अन्तर्मन की, करीब मैं आया,
मंजिल भूला, राह भटका मैं फिर आज।

सौंधी मिट्टी, महकते फूल, चहकते पंछी,
इनमें बस तू ही तू मुझको दिखता है आज।
  •  रविकुमार बाबुल


चित्र : साभार गूगल

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