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Tuesday, March 13, 2012

परछाई के खातिर कब तक.... सूरज को पीठ दिखाऊंगा


मजबूरी की मंजूरी है या
मंजूरी की मजबूरी है
ख्वाबों की हकीक़त से
ये जाने कैसी दूरी है
टूटा- चिटका सच बेहतर है
उजले उजले धोखे से
कुछ मौके पर तुम मुकरे हो
कुछ मौकों पर गलत थे हम
धुंआ धुंआ फैले थे तुम
हवा हवा संवरे थे हम
अब खुद को कितना मौका दूंगा
कितना मै समझाऊंगा
परछाई के खातिर कब तक
सूरज को पीठ दिखाऊंगा
ये जिंदगी की दौड़ है
यहाँ हारना भी जरूरी था
यहाँ जीतना भी जरूरी है
मजबूरी की मंजूरी है या
मंजूरी की मजबूरी है
ख्वाबों की हकीक़त से
ये जाने कैसी दूरी है

5 comments:

  1. मज़बूरी मन्जूर कर लिया, पीठ दिखा लो सूरज को ।

    महबूबा को अंक भरे जब, धूप लगे न सूरत को ।

    बनकर के परछाईं जीती, चिंता तो करनी ही है -

    झूठ झकास जीत भी जाये, लेकिन मरता इज्जत को ।।

    दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
    dineshkidillagi.blogspot.com

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  2. धुंआ धुंआ फैले थे तुम
    हवा हवा संवरे थे हम
    अब खुद को कितना मौका दूंगा
    कितना मै समझाऊंगा
    परछाई के खातिर कब तक
    सूरज को पीठ दिखाऊंगा
    ..vythith man ki sarthak baangi...

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  3. dhnywaad kavita ji
    Ravikar ji bahut bahut dhnywaad :)

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