मंजूरी की मजबूरी है
ख्वाबों की हकीक़त से
ये जाने कैसी दूरी है
टूटा- चिटका सच बेहतर है
उजले उजले धोखे से
कुछ मौके पर तुम मुकरे हो
कुछ मौकों पर गलत थे हम
धुंआ धुंआ फैले थे तुम
हवा हवा संवरे थे हम
अब खुद को कितना मौका दूंगा
कितना मै समझाऊंगा
परछाई के खातिर कब तक
सूरज को पीठ दिखाऊंगा
ये जिंदगी की दौड़ है
यहाँ हारना भी जरूरी था
यहाँ जीतना भी जरूरी है
मजबूरी की मंजूरी है या
मंजूरी की मजबूरी है
ख्वाबों की हकीक़त से
ये जाने कैसी दूरी है
मज़बूरी मन्जूर कर लिया, पीठ दिखा लो सूरज को ।
ReplyDeleteमहबूबा को अंक भरे जब, धूप लगे न सूरत को ।
बनकर के परछाईं जीती, चिंता तो करनी ही है -
झूठ झकास जीत भी जाये, लेकिन मरता इज्जत को ।।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
धुंआ धुंआ फैले थे तुम
ReplyDeleteहवा हवा संवरे थे हम
अब खुद को कितना मौका दूंगा
कितना मै समझाऊंगा
परछाई के खातिर कब तक
सूरज को पीठ दिखाऊंगा
..vythith man ki sarthak baangi...
dhnywaad kavita ji
ReplyDeleteRavikar ji bahut bahut dhnywaad :)
bahut khoob.thanks
ReplyDeletedhnywaad dr. sahiba :)
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