रविकुमार बाबुल
थक गया हूं बनाते-बनाते,
अब नहीं बनता है,
रेत का घर,
मुझसे मेरे शहर में।
कुछ यादें या रेत,
छोड़ कर जा रहा हूं मैं,
पास तुम्हारे।
बना लेना,
तुम इससे अपने लिये,
खुशी का एक घर।
घर के आंगन में रख देना,
तुलसी के गमले में
शालिग राम की-सी,
यादें मेरी।
मैं दरिया बनकर,
बह निकल जाऊंगा।
तुमसे बहुत दूर,
तुम्हारे लिये
किनारा रेत का छोड़ कर।
अपने मुताबिक लिख लेना,
तुम मनचाहा नाम इस पर।
मैं कभी नहीं लौटूंगा,
तेरे लिखे नाम पर अपना नाम लिखने,
नदी की तरह।
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