रविकुमार बाबुल
हर रोज,
कुछ शब्दों की पुडिय़ा,
बना कर,
रख लेता हूं,
तुम्हारे लिये।
कभी किसी रोज,
मंदिर जाना हुआ मेरा,
और तुम मिल गये,
सब चढ़ा दूंगा
तुम पर।
मिन्नतें भी तुमसे थीं,
मन्नतें भी तुमसे।
मन का हुआ,
तब मान लूंगा,
मेरे देवता ने सुन लिया,
और न हुआ तब भी,
तुम्हें नहीं,
दोष अपने नसीब को दूंगा।
पर तुम पर चढ़ा कर मैंने,
जिन शब्दों को,
करके पवित्र, बना लिया है प्रसाद,
जिन्दा रहने तक बांटता रहूंगा,
अगले जन्म के पुण्य की खातिर,
तुम्हारी यादों की तरह।
बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने इस मैं कमी निकलना मेरे बस की बात नहीं है क्यों की मैं तो खुद १ नया ब्लोगर हु
ReplyDeleteबहुत दिनों से मैं ब्लॉग पे आया हु और फिर इसका मुझे खामियाजा भी भुगतना पड़ा क्यों की जब मैं खुद किसी के ब्लॉग पे नहीं गया तो दुसरे बंधू क्यों आयें गे इस के लिए मैं आप सब भाइयो और बहनों से माफ़ी मागता हु मेरे नहीं आने की भी १ वजह ये रही थी की ३१ मार्च के कुछ काम में में व्यस्त होने की वजह से नहीं आ पाया
पर मैने अपने ब्लॉग पे बहुत सायरी पोस्ट पे पहले ही कर दी थी लेकिन आप भाइयो का सहयोग नहीं मिल पाने की वजह से मैं थोरा दुखी जरुर हुआ हु
धन्यवाद्
दिनेश पारीक
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