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Thursday, December 15, 2011

मुठ्ठी भर उम्मीद


सूरज की मानिंद,
आवारगी  हमारी,
ताउम्र चांद को तलाशती रही।

सूरज की चांद से ,
मिलन की,
बस इक आरजू रही।

कभी किसी रोज,
ग्रहण में वह खो जाये मुझमें,
बस मुठ्ठी भर उम्मीद यही रही।


  • रवि कुमार बाबुल



फोटो गूगल से साभार

8 comments:

  1. ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं।

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  2. उम्मीद की बेहतरीन अभिवयक्ति.....

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  3. आदरणीय संजय जी,
    यथायोग्य अभिवादन्।

    कोशिश ही नहीं की कुछ छिपाने की, सो सब कुछ पंक्तियों ने कह दिया? शुक्रिया सराहने के लिये।

    रविकुमार बाबुल
    ग्वालियर

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  4. आदरणीय सुषमा आहुति जी,
    यथायोग्य अभिवादन्।

    आपको रचना अच्छी लगी, शुक्रिया।

    रविकुमार बाबुल
    ग्वालियर

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  5. आदरणीय सागर जी,
    यथायोग्य अभिवादन्।

    आपके सराहने के लिये शुक्रिया।

    रविकुमार बाबुल
    ग्वालियर

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  6. आदरणीय पूनम जी,
    यथायोग्य अभिवादन्।

    जी... मेरी रचना अच्छी लगी, इसके लिये धन्यवाद।

    रविकुमार बाबुल
    ग्वालियर

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