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Wednesday, September 28, 2011

ये जीवन क्यूँ भारी लगता है?



तू आज नहीं है सम्मुख तो,
जीवन क्यूँ भारी लगता है?
मौसम भी साथ नहीं देता,
तेरा आभारी लगता है॥

इन सबकी बातें छोड़ो,
आँखे क्यूँ साथ नहीं देतीं?
इस सूखे साखे मौसम में,
क्यूँ भरा पनारा लगता है?

कागज की कश्ती डूब चुकी,
जीवन नौका की बारी है,
पतवार है जिसके हाथों में,
बस उसका पता नहीं लगता है॥

कैसे रो रोकर गाऊँ मैं?
कैसे खुद को समझाऊँ मैं?
ये चाँद भी बात नहीं करता,
तेरा ही आशिक लगता है॥

आँखे खोलूं तो पानी है,
दिखती ना कोई निशानी है,
कानों में पड़ने वाला श्वर,
बस तेरी कहानी कहता है॥

1 comment:

  1. bahut achhi kavita hai dost..

    khaas kar ye lines:

    कागज की कश्ती डूब चुकी,
    जीवन नौका की बारी है,
    पतवार है जिसके हाथों में,
    बस उसका पता नहीं लगता है॥

    कैसे रो रोकर गाऊँ मैं?
    कैसे खुद को समझाऊँ मैं?
    ये चाँद भी बात नहीं करता,
    तेरा ही आशिक लगता है॥

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