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Friday, September 30, 2011

तेरे लाज के घूँघट से


                                            

उमड़ आयी बदली 
तेरे लाज के घूँघट से 
द्वार पर  खड़ी तू 
बेतस बाट जोहती 
झलक गये तेरे केशू
तेरे आँखों के अर्पण से |

पनघट पे तेरा आना 
भेष बदल गगरी छलकाना 
छलक गयी गगरी तेरी 
तेरे लाज के घूँघट से |

सजीले पंख सजाना 
प्रतिध्वनित  वेग से 
झरकर गिर आयी 
तेरे पाजेब की रुनझुन से |

रागों को त्याग 
निष्प्राण तन में उज्जवल 
उस अनछुई छुअन में 
बरस गयी बदली 
तेरे लाज के घूँघट से 
उमड़ आयी बदली 
तेरे लाज के घूँघट से 
- दीप्ति शर्मा 


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मत कहो सच



मत कहो कुछकोई बच्चा कुनमुना है,
सूर्य लेकर हाथ में, सच ढूंढने की कोशिश,
भी हार सकती है,
बाहर सब ओर कोहरा घना है॥

मत जगाओ देश कोयह अनसुना है,
किसान का हलसैनिक की बन्दूक,
भी हार सकती है,
धन का नशा कई गुना है॥

मत कहो सचआजकल बिलकुल मना है,
पत्रकारिता की बिकी कलम को छोड़ोये कलम,
ना हार सकती है
सत्य का न ही नामों निशां है॥

मत समझनागरीब भी मानव जना है,
इन्हें बचाने की कोशिश करती, इंसानियत
भी हार सकती है
ये न मिट्टी का बना है॥

मत कहो कुछकोई बच्चा कुनमुना है

प्रेमी जमाना होता



न होता कोई कत्ले आम,
मंदिर मस्जिद को रोता,
होते धर्म न इश्वर अल्लाह,
इक पालनहार ही होता॥

होता हर ओर एक ही रंग,
बस प्रेमी जमाना होता,
न आती कोई आफत,
न ही जंगे तराना होता॥

पेड़ मुस्लिम है न हिन्दू है,
अब भी जंगल में रहता,
पशु पक्षी और मौसम को,
जीवन का दान ही करता॥

क्या करें सभ्यता का अब,
जब सभ्य सभ्य से लड़ता,
अधनंगा जब आदि मनुज,
बस यहाँ शांति से रहता॥

न होता कोई कत्लेआम,

Thursday, September 29, 2011

ए अजनबी तेरे आने का'' शुक्रिया

ए अजनबी तेरे आने का'' शुक्रिया 
इस रूठे हुए को मानाने का शुक्रिया 

आवारगी से नवाजा है ज़माने ने इसे 
संग इसके दिल लगाने का शुक्रिया 

बहुत खामोश है जिन्दगी इसकी 
संग इसके मुस्कुराने का शुक्रिया  

'मनी 'घर होते हुए भी बेघर रहा 
संग इसके घर बसाने का शुक्रिया 

समझ हों के भी न समझे लोग 
तेरा इसको समझ जाने का शुक्रिया 

Wednesday, September 28, 2011

नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएं......!

 
सभी ब्लोगर साथियों को परिवार सहित 
 नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएं
आप सभी का जीवन मंगलमयी रहे 
यही माता से प्रार्थना  है 
जय माता दी  !!!!!

-- संजय भास्कर

ये जीवन क्यूँ भारी लगता है?



तू आज नहीं है सम्मुख तो,
जीवन क्यूँ भारी लगता है?
मौसम भी साथ नहीं देता,
तेरा आभारी लगता है॥

इन सबकी बातें छोड़ो,
आँखे क्यूँ साथ नहीं देतीं?
इस सूखे साखे मौसम में,
क्यूँ भरा पनारा लगता है?

कागज की कश्ती डूब चुकी,
जीवन नौका की बारी है,
पतवार है जिसके हाथों में,
बस उसका पता नहीं लगता है॥

कैसे रो रोकर गाऊँ मैं?
कैसे खुद को समझाऊँ मैं?
ये चाँद भी बात नहीं करता,
तेरा ही आशिक लगता है॥

आँखे खोलूं तो पानी है,
दिखती ना कोई निशानी है,
कानों में पड़ने वाला श्वर,
बस तेरी कहानी कहता है॥

ये धरा नहीं है, जन्नत है



जन्मों से जिसको माँगा है,

वो पूरी होती मन्नत है।
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

शस्य श्यामला धरती प्यारी,
ईश्वर की एक अमानत है,
सबको ये खैर मिलेगी कैसे?
बस ये तो  मेरी किस्मत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

क्रांतिवीर विस्मिल की माता,
जननी है नेता सुभाष की,
पद प्रक्षालन करता सागर,
जिसके सम्मुख शरणागत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

बाँट दिया हो भले तुच्छ,
नेताओं ने मंदिर मस्जिद में,
भूकम्पों से ना हिलने वाला,
हिमगिरी से रक्षित भारत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

संस्कार शुशोभित पुण्यभूमि,
हैं प्रेमराग में गाते पंछी,
दुनिया को राह दिखाने की,
इसकी ये अविरल गति है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

आदिकाल से मानव को,
जीवन का सार सिखाया है,
स्रष्टि का सारा तेज ज्ञान,
जिसके आगे नतमस्तक है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

जन्म यहाँ फिर पाना ही,
मेरा बस एक मनोरथ है,
कर लूँ चाहे जितने प्रणाम,
पर झुका रहेगा मस्तक ये॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

Thursday, September 22, 2011

प्रगति......


प्रगति आतंक की जननी है 
खून तो मानो आतंक है 
पर प्रगति तो धमनी है 
प्रगति ने किया बंदूकों का आविष्कार 
इंसानों ने किया अपनों का ही शिकार 
प्रगति ने ही किया परमाणु अस्त्रों का आविष्कार  
जल गया हिरोशिमा नागासाकी जिसका न कोई आधार 
प्रगति अभी खोज रही थी कैंसर का उपचार 
लो आ गया नया एड्स का भरा पूरा परिवार 
प्रगति ने ही किया है वकील अदालतों का आविष्कार 
बोफोर्स, हवाला चारा करके भी बच गई सरकार 
प्रगति का सबसे बड़ा आविष्कार तो है नोटों की लम्बी तलवार 
जिससे काटो तो ना निकले खून और बचे कातिल हर बार..... 


Monday, September 19, 2011

नाजायज भी जायज है




तू अगर खड़ी हो सम्मुख तो,
दिल की दुर्घटना जायज है,
आँखों की बात करूँ कैसे?
इनका ना हटना जायज है॥

स्वप्नों में उड़ना जायज है,
चाँद पकड़ना जायज है,
गर तुम हो साथ मेरे तो,
दुनिया से लड़ना जायज है॥

किसी और से आँख लड़े कैसे?
ये सब तो अब नाजायज है
तू हो मेरे आलिंगन में तो,
धरती का फटना जायज है॥

चाहें लाख बरसतें हो बादल,
उनका चिल्लाना जायज है,
गर तेरा सर हो मेरे सीने पर,
बिजली का गिरना जायज है॥

अचूक हलाहल हो सम्मुख,
मेरा पी जाना जायज है,
इक आह हो तेरे होंठों पर,
तो मेरा डर जाना जायज है॥

स्रष्टि का क्रंदन जायज है,
हिमाद्रि बिखंडन जायज है,
मेरे होंठो पर हों होंठ तेरे,
तो धरा का कम्पन जायज है॥

तू हो तीर खड़ी नदिया के,
उसका रुक जाना जायज है,
बस तेरे लिए हे प्राणप्रिये,

जीवन के छंद



नौका को सागर की लहरों पर
पति और पत्नी के झगड़ों पर,
एहसास प्यार का होता है,
गऊयों को अपने बछड़ों पर॥

हिन्दू मुस्लिम के दंगों पर,
भाई भाई के झगड़ों पर,
एहसास दर्द का होता है,
धरती को अपने टुकड़ों पर॥

पेड़ों पर चढ़ती बेलों पर,
उन पर इठलातीं कलियों पर,
एहसास प्यार का होता है,
मिटटी को जौं की फलियों पर॥

नदिया के दोनों छोरों पर,
आँखों के दोनों कोरों पर,
एहसास दर्द का होता है,
अब तेरे बिना बिछौनों पर॥

उस रब के सारे बन्दों पर,
इस दुनिया के सब धंधो पर,
आश्चर्य बहुत ही होता है,
अब जीवन के इन छंदों पर॥


स्पर्श: समझो गर तुम

स्पर्श: समझो गर तुम: शिकायत नहीं है वफ़ा से तुम्हारी फिर भी तन्हाइयों के पास हूँ | उलझी हूँ अपनी ही क...

Thursday, September 15, 2011

नींद


रात को नींद जब आती हैं ,
आँखों में कुछ ख्वाब लाती हैं
कुछ खट्टे ,कुछ मीठे पलों को ,
कुछ प्यारे चेहरों को
फिर से सपनो में लाती हैं

रात को नींद जब आती हैं

कभी भूत का सपना
कभी कोई अपना
याद दिलाती हैं
रात को नींद जब आती हैं

जो ख्वाब हकीकत में सच ना हो
वो ख्वाब पूरे करवाती हैं


कभी प्रेमिका की बात
तो कभी माँ की याद सताती हैं
रात को नींद जब आती हैं

ताजगी जीवन में
थकान को दूर भगाती हैं

कुछ अनदेखे चेहरे ,
कुछ अनकही बाते
तो कभी मौत भी दिखलाती हैं
रात को नींद जब आती हैं

चाहे जो भी हो
पर जब नींद आती हैं
चैन और सुकून लाती हैं

रात को नींद जब आती हैं

Chirag Joshi, Ujjain
chirag@dakhalandazi.co.in

 

Tuesday, September 13, 2011

हिंदी दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें


हिंदी दिवस पर आप सभी को  हार्दिक शुभकामनायें 
आइये आज प्रण करें  के हम हिंदी को उसका सम्मान वापस दिलाएंगे !
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जय हिंद जय हिंदी राष्ट्र भाषा

ये मदिरालय


थोड़े गम जो सह नही पाते हैं,
बस मय में ही डूबे जाते हैं।
पीकर खुद को बादशाह समझ,
मदिरालय में झुकने जाते हैं।

मदिरामय होकरस्वप्नों में,
सच्चे दुःख दर्दभुलाये जाते हैं।
मृतप्राय पड़े इस जीवन के,
सत्यासत्य बखाने जाते हैं। 

दो चार ग़मों के ही खातिर,
ये मदिरालय जाया करते हैं।
स्वाभिमान गिरवी रख कर,
मय की ठोकर खाया करते हैं।

ये तो अपने कर्मों का ही,
बोझ नहीं ढ़ो पाते हैं।
ये तुच्छ और असहाय जीव,
दार्शनिक बनाये जाते हैं। 

हम प्रश्न नहीं उठाते दुःख पर,
जीवन के पहलू होते हैं।
पर इनसे लड़ने की ताकत,
मदिरा से कायर ही लेते हैं।

हम निपट अकेले हैं फिर भी,
साथ न इसका लेते हैं।
हम अपने जख्मों का दर्द,
हँसस्वयं गर्व से पीते हैं।