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Tuesday, April 2, 2013

"ढूँढते ढूँढते.. ख़ुद को.. मैं कहाँ जा निकला... एक पर्दा जो उठा ... दूसरा पर्दा निकला ;


"ढूँढते ढूँढते.. ख़ुद को.. मैं कहाँ जा निकला...
एक पर्दा जो उठा ... दूसरा पर्दा निकला ;

मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर.. तह-ओ-बाला निकला...
गौ़र से देखा.. तो हर शख़्स.. तमाशा निकला ;

एक ही रंग का ग़म.. खाना-ए-दुनिया निकला...
ग़मे-जानाँ भी ..ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला ;

इस राहे-इश्क़ को हम.. अजनबी समझे थे मगर...
जो भी पत्थर मिला .. बरसों का शनासा निकला ;

आरज़ू .. हसरत-ओ-उम्मीद.. शिकायत..आँसू...
इक तेरा ज़िक्र था.. और बीच में क्या क्या निकला ;

घर से निकले थे.. कि आईना दिखायें सब को...
हैफ़ ! हर अक्स में .. अपना ही सरापा निकला ;

जी में था.. बैठ के .. कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’...
तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला ..."

--------------------------------- ' सरवर '

शनासा = परिचित ,जाना-पहचाना
हैफ़ = हाय 

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