"ढूँढते ढूँढते.. ख़ुद को.. मैं कहाँ जा निकला... एक पर्दा जो उठा ... दूसरा पर्दा निकला ;
"ढूँढते ढूँढते.. ख़ुद को.. मैं कहाँ जा निकला... एक पर्दा जो उठा ... दूसरा पर्दा निकला ;
मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर.. तह-ओ-बाला निकला... गौ़र से देखा.. तो हर शख़्स.. तमाशा निकला ; एक ही रंग का ग़म.. खाना-ए-दुनिया निकला... ग़मे-जानाँ भी ..ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला ;
इस राहे-इश्क़ को हम.. अजनबी समझे थे मगर... जो भी पत्थर मिला .. बरसों का शनासा निकला ;
आरज़ू .. हसरत-ओ-उम्मीद.. शिकायत..आँसू... इक तेरा ज़िक्र था.. और बीच में क्या क्या निकला ;
घर से निकले थे.. कि आईना दिखायें सब को... हैफ़ ! हर अक्स में .. अपना ही सरापा निकला ;
जी में था.. बैठ के .. कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’... तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला ..."
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