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Sunday, April 7, 2013
" लोग हर मोड़ पे.. रुक-रुक के.. संभलते क्यूँ हैं... इतना डरते हैं .. तो फिर घर से.. निकलते क्यूँ हैं ;
" लोग हर मोड़ पे.. रुक-रुक के.. संभलते क्यूँ हैं...
इतना डरते हैं .. तो फिर घर से.. निकलते क्यूँ हैं ;
मैं न जुगनू हूँ.. दिया हूँ.. न कोई तारा हूँ...
रौशनी वाले .. मेरे नाम से.. जलते क्यूं हैं ;
नींद से मेरा.. ताल्लुक़ ही नहीं.. बरसों से...
ख्वाब आ-आ के.. मेरी छत पे.. टहलते क्यूँ हैं ;
मोड़ होता है.. जवानी का.. संभलने के लिए...
और सब लोग.. यहीं आ के.. फिसलते क्यूँ हैं..."
--------------------------- ' राहत इन्दौरी '
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