दुनिया भी अजीब सी पागल हो चली है, बहकती भी यही है और लुढ़कती भी यही है। शायद तभी सब इस दुनिया को ‘पागल ’ का तमगा दे बैठते हैं। मेरी सहयोगी ने इसी पागलपन को जब शब्दों में ढाला तो लगा हर इक शब्द पागल हो उठा हो? जी... कभी प्रेम से इतर पागलों के लिये मशहूर रहे आगरा में रहकर पागलपन पर उनकी रचना अगर आपको अच्छी लगे उनके लिंक से जरूर जुड़े।
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पागल से दुनिया हारी...
कुछ तुम पागल कुछ हम पागल
पागल सी है दुनिया सारी
मैं पागलपन का कायल हूं
पागल से ये दुनिया हारी....
पागल को पागल गर कह दो
वो मंद-मंद मुस्काता है
नहीं फिक्र उसे किसी आम-खास की
वो खुद गाता-चिल्लाता है...
पागलपन यारों नशा एक
ये नहीं है कोई बीमारी
पागल से दूजा नहीं श्रेष्ठ
पागल ने ये दुनिया तारी...
पागल बनकर देखो तुम भी
क्या खूब मजा फिर आएगा
आंसू को पीने वाला भी
हंस-हंस कर गीत सुनाएगा
अपनी दुनिया का मालिक वो
है बिन कुर्सी का अधिकारी
पागल को मेरा श्रद्धेय नमन
पागलपन का मैं पुजारी
पागलपन पाने की खातिर
तप कठोर करना पड़ता है
आसान नहीं पागल बनना
जीते-जी मरना पड़ता है
शब्द-शब्द और श्वांस-श्वांस जब
घुट-घुट कर दब जाते हैं
दशकों तक चलता है ये क्रम
तब बिरले पागल बन पाते हैं....
नहीं आम शख्स पागल कोई..
मनुज है कोई अवतारी
मैं पागलपन का कायल हूं,
पागल से ये दुनिया हारी....