Tuesday, April 23, 2013
Monday, April 15, 2013
दुनिया पर हंसने का फ़न आसान नहीं, पहले अपनी हंसी उड़ानी होती है '
स्मरण / चार्ली चैपलिन ( 16.4.1889 - 20.12.1977 )
चार्ली चैपलिन मतलब विश्व सिनेमा का सबसे बड़ा विदूषक और सर्वाधिक चाहा गया स्वप्नदर्शी महानायक जो अपने जीवन-काल में ही किंवदंती बन गया। अपने व्येक्तिगत जीवन में बेहद उदास, खंडित, दुखी और हताश चार्ली ऐसे अदाकार थे जो भीषण और त्रासद परिस्थितियों को एक हंसते हुए बच्चे की निगाह से देख सकते थे। रूपहले परदे पर उनकी हर भाव-भंगिमा, हर हरकत अपने युग की सबसे लोकप्रिय मिथक बनी। विश्व सिनेमा पर इतना बड़ा प्रभाव उनके बाद के किसी सिनेमाई शख्सियत ने नहीं छोड़ा। हमारे राज कपूर ने श्री 420, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर जैसी कुछ फिल्मों में चार्ली को हिंदी सिनेमा के परदे पर पुनर्जीवित करने की कोशिश की थी। चार्ली बहुमुखी प्रतिभा के धनी फिल्मकार थे जिन्होंने अभिनय के अलावा अपनी ज्यादातर फिल्मों का लेखन, निर्माण, निर्देशन और संपादन ख़ुद किया। 1921 से 1967 तक लगभग पांच दशक के फिल्म कैरियर में उनकी सर्वाधिक चर्चित फ़िल्में थीं - The Kid, A Woman in Paris, The Gold Rush, The Circus, City Lights, Modern Times, The Great Dictator, Limelight, A King in New York, A Countess From Hong Kong आदि।
एक मासूम सी दुनिया का ख़्वाब देखने वाली नीली, उदास और निश्छल आंखों वाले ठिंगने चार्ली चैपलिन के जन्मदिन पर हमारी उदास और निश्छल श्रधांजलि एक शेर के साथ - '
दुनिया पर हंसने का फ़न आसान नहीं
पहले अपनी हंसी उड़ानी होती है '
गोपू का फेस्बुकिया इश्क
हमारे मोहल्ले के टशनी मित्र गोपेश्वर प्रसाद त्रिपाठी उर्फ़ गोपू। ये उनका उर्फ़ वाला नाम हम दोस्तों की देन है। वैसे गोपू भाई शुरवात में मतलब जब हम लोगों की संगती में आये थे तब वो टशनी वशनी तो बिलकुल नहीं थे. एक सीधे सच्चे बच्चे थे। फिर बातों के साथ गलियों का ऐसा मिश्रण हुआ की मानो शरबत में नींबू नीचोड़ कर दे दिया हो किसी ने। वैसे बीप बीप वाली जुबान के मालिक गोपू आज कल दूसरी ही भाषा बोल रहे हैं। जैसे हँसते हैं तो कहते हैं लोल, कुछ बुरा लग जाए तो बोलते हैं व्हाट द ऍफ़, और ज़्यादातर तो अपने टशनी फ़ोन के साथ ही लगे रहते हैं। हम दोस्तों से ज्यादा वो उन दोस्तों से बातें करते हैं। खैर अपन को कोई शिकायत नहीं, अपन तो फ़क्कड़ी आदमी हैं, दोस्त को अपन ने वहां भी पकड़ लिया। पर साला अब अबे की जगह हाय बोलना पड़ता है। खैर गोपू से फेस टू फेस न सही फेसबुक पर तो मुलाक़ात हो ही जाती है।
हफ्ते में कभी कभार नहाने वाले गोपू फेसबुक में अपनी चमचमाती हुई प्रोफाइल फोटो और गूगल से उठाई गयी प्यार वाली कविताओं के लिए जाने जाते हैं। यह कार्य ये नियमित रूप से कर रहे है। वैसे एक काम और है जो ये बिना किसी देरी के करते हैं वो है लड़की की प्रोफाइल दिखी नही की इनका फ्रेंड रिक्वेस्ट का पहुंचना। वैसे उनकी कोशिस थोड़ी बहुत कामयाब भी हुई कुछ फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट भी हुई और बहुत सारी रिजेक्ट। खैर आशावादी गोपू ने रिजेक्शन को भूल एक्सेप्टेंस की ख़ुशी मनाई और अपने वाल पर चिपका दी किसी घटिया कवि की घटिया सी लाइन " बधाई हो दोस्तों हम हो गए आज हज़ार, बस इसी तरह से मिलता रहे आपका हर दिन प्यार" । प्यार से याद आया की अपनी 'गोप्स द डूड' के नाम से बनायीं गयी प्रोफाइल जुडी न जाने कितनी फेक आई डी वाली लड़कियों से और न जाने कितनी बार प्यार कर बैठे थे हमारे मोहल्ले के टशनी मित्र गोपेश्वर प्रसाद त्रिपाठी उर्फ़ गोपू। हज़ारों बार दिल टूटा और लाखों बार खुद को संभाला, आखिर कार सोशल मीडिया पर होने का फायदा उन्हें मिलता हुआ दिखाई पड़ा। वो अब हर घंटे की अपडेट लिख देते हैं दिल का सिम्बल बना कर। इश्क वाला लव हुआ था या लव वाला इश्क पता ही नहीं चला। ये अपना गोपू ही था जो की ऐसी ऐसी फोटो पर वहां नज़र आ रहा था या फिर कोई और। अभी तक फेस टू फेस न मिला गोपू फेसबुक पर इश्क के इज़हार को अपना संसार मान रहा था।
इसका एक तो फर्क पड़ा, अब वो पुरा
ना वाला गोपू वापस मिल गया जो की हमसे पहली बार मिलने आया था। मतलब बिना गाली वाला सीधा बच्चा, इश्क जो न कराये वो कम।
ना वाला गोपू वापस मिल गया जो की हमसे पहली बार मिलने आया था। मतलब बिना गाली वाला सीधा बच्चा, इश्क जो न कराये वो कम।
वैसे उस प्यार के चक्कर में उसने शहर के न जाने कितने और कहाँ कहाँ चक्कर लगाये, ऐसा लग रहा था कोई टीचर किसी बिगडैल बच्चे को जानबूझ कर ऐसा टास्क दे रहा है जिससे उसका ज्ञान भी बड़े और सजा भी मिले। पर यहाँ तो न कोई टीचर था और न ही कोई स्टूडेंट, यहाँ था तो ट्शनी की चाशनी से बहार आ चूका गोपू और उसका अनदेखा, अंजना (एकौर्डिंग टू हिम फेसबुक पर मिला और जाना पहचाना) प्यार। खैर अपनी ही दुनिया में मस्त गोपू मोबाइल और लैपटॉप से चिपका रहने वाला वो लड़का अब एक मीटिंग ही चाहता था, पर ये उसकी चाहत थी, हर चाहत हकीकत हो ये जरूरी तो नहीं। वैसे इतना सब होते हुए भी उसने किसी को कुछ नहीं बताया, पर एक दिन जब उससे नहीं रहा गया तो मुझसे बोलने लगा " यार नीरज ये बताओ की किसी को बिना देखे बिना मिले, या फिर केवल फेसबुक ( ये शब्द उसके मुह से अचानक निकल गया) पर मिले प्यार हो सकता है क्या?" मैंने कहाँ यार ये तो अपनी अपनी सोंच है वैसे के बार मिलकर ही फैसला लेना चाहिए दोस्त नहीं तो दिल टूटता है और उसकी आवाज़ तक नहीं आती है।
शायद उसको ये बात कुछ जमी, और उसने उस पर मिलने के लिए खूब जोर डाला, और मीटिंग फिक्स हुई वो बड़ा बनठन के मिलने पहुंचा हाथों में गुलाब, आँखों में महंगा सा चश्मा अच्छी सी शर्ट पेंट और बेहद कीमती पर्फियुम से नहाकर। थोड़ी देर इंतज़ार के बाद उसको बताये हुए रंग (पिंक) की शर्ट और जीन्स में एक लड़की नुमा लड़का पहुंचा, उसे यकीन नहीं हुआ, उस वक्त उसे लगा की जो उसकी सोंच है वही सही है ये जो नज़र आ रहा है ये भ्रम है इसी लिए उसने मुस्कुराकर वेलकम करते हुए जब अपन हाथ बढाया तो उसका अहसास भी उसकी सोंच की तरह ही कोमल था। मगर कहते हैं की जब सच का झोंका चलता है तो झूठ के सारे महल ढ़ह जाते हैं। वही हुआ जैसे ही उसने मुह खोला गोपेश्वर प्रसाद त्रिपाठी उर्फ़ गोपू का सारा भ्रम फुर्र हो गया। फिर क्या था वो वहां से ऐसे भाग जैसे वहां आया ही न हो।
वैसे सुना है की फेसबुक पर प्यार तो नहीं मिला पर फेसबुक से उसका प्यार अभी भी बरकरार है। लोग तो कहते हैं गोपू की खोज जारी है और उसकी लड़कियों को फ्रेंड रिक्वेस्ट सेंडिंग भी जारी है।
Thursday, April 11, 2013
मनी' बहुत काम है कैसे मैनेज कर रहे हो तुम , मुश्किल रास्ता है पर कैसे कैसे चल रहे हो तुम
मनी' बहुत काम है कैसे मैनेज कर रहे हो तुम
मुश्किल रास्ता है पर कैसे कैसे चल रहे हो तुम
न कोई गुस्सा, न इरीटेसन, न फिजूल की बाते है
ताजुब है और दिन पे दिन कैसे सुलझ रहे हो तुम
इन दिनों न उसूल न कोई गजल न पॉलिटिक्स
कुछ बताओ,सिर्फ सादे सादे कैसे रह रहे हो तु
कुछ तो है जो बदला हुआ इन दिनों, है न
मानना पड़ेगा ये सब कैसे कर रहे हो तुम
=======================मनीष शुक्ल
मुझको न भूलाना तुम
तन्हाईयों से कहो चुप रहे, चीखना-चिल्लाना जरूरी था।
दिल को कौन दिलाए यकीन, उसका जाना जरूरी था।
अपने जागने का सबब यह कहकर छिपाया सबसे मैंने,
चांद सो न जाये, इसलिये मेरा जागना जरूरी था।
यह शर्त कहां थी मेरी, मुझको न भूलाना तुम,
हां, यह तय था, तेरा याद रहना जरूरी था।
तुमको बेवफा न कह दें मेरे जानने वाले कहीं,
इश्क में हादसा कोई, दोस्तों को सुनाना जरूरी था।
वक्त की जमीं पर बिखेर दिये खत के पुर्जे,
तू मेरा था कभी, यह सबसे छिपाना जरूरी था।
- रविकुमार बाबुल
Sunday, April 7, 2013
पुण्यतिथि / बंकिम चंद्र चटर्जी
पुण्यतिथि / बंकिम चंद्र चटर्जी
भारत के राष्ट्र गान के रचनाकार स्व. बंकिम चंद्र चटर्जी ( 27.6.1838 - 8.4.1894 ) बंगला के प्रथम और सर्वाधिक पठित उपन्यासकार रहे हैं। उन्नीसवी सदी में बंगला में उन्हें वही लोकप्रियता हासिल थी जो हिंदी में ' चंद्रकांता ' के लेखक देवकीनंदन खत्री को प्राप्त थी। राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत ' आनंद मठ ' उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास है। ' वंदे मातरम् ' इसी उपन्यास का अंश है। ' दुर्गेश नंदिनी ', ' कपाल कुंडला ', ' देवी चौधरानी ', ' विषवृक्ष ', ' इंदिरा ', ' रजनी ', ' राधारानी ', ' चंद्रशेखर ', ' मृणालिनी ', ' सीताराम ', ' कृष्णकांत का वसीयतनामा ' आदि उनके अन्य कालजयी उपन्यास हैं जिनके अनुवाद देश की सभी प्रमुख भाषाओं में उपलब्ध हैं। इस महान रचनाकार की पुण्यतिथि पर कृतज्ञ राष्ट्र की हार्दिक श्रधांजलि, उन्हीं की रचना और हमारे राष्ट्र गान के साथ !
वंदे मातरम्
सुजलां सुफलाम् मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम् !
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीं
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम
सुहासिनीं सुमधुरभाषिनीं
सुखदां वरदां मातरम्
वंदे मातरम् !
भारत के राष्ट्र गान के रचनाकार स्व. बंकिम चंद्र चटर्जी ( 27.6.1838 - 8.4.1894 ) बंगला के प्रथम और सर्वाधिक पठित उपन्यासकार रहे हैं। उन्नीसवी सदी में बंगला में उन्हें वही लोकप्रियता हासिल थी जो हिंदी में ' चंद्रकांता ' के लेखक देवकीनंदन खत्री को प्राप्त थी। राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत ' आनंद मठ ' उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास है। ' वंदे मातरम् ' इसी उपन्यास का अंश है। ' दुर्गेश नंदिनी ', ' कपाल कुंडला ', ' देवी चौधरानी ', ' विषवृक्ष ', ' इंदिरा ', ' रजनी ', ' राधारानी ', ' चंद्रशेखर ', ' मृणालिनी ', ' सीताराम ', ' कृष्णकांत का वसीयतनामा ' आदि उनके अन्य कालजयी उपन्यास हैं जिनके अनुवाद देश की सभी प्रमुख भाषाओं में उपलब्ध हैं। इस महान रचनाकार की पुण्यतिथि पर कृतज्ञ राष्ट्र की हार्दिक श्रधांजलि, उन्हीं की रचना और हमारे राष्ट्र गान के साथ !
वंदे मातरम्
सुजलां सुफलाम् मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम् !
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीं
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम
सुहासिनीं सुमधुरभाषिनीं
सुखदां वरदां मातरम्
वंदे मातरम् !
" लोग हर मोड़ पे.. रुक-रुक के.. संभलते क्यूँ हैं... इतना डरते हैं .. तो फिर घर से.. निकलते क्यूँ हैं ;
" लोग हर मोड़ पे.. रुक-रुक के.. संभलते क्यूँ हैं...
इतना डरते हैं .. तो फिर घर से.. निकलते क्यूँ हैं ;
मैं न जुगनू हूँ.. दिया हूँ.. न कोई तारा हूँ...
रौशनी वाले .. मेरे नाम से.. जलते क्यूं हैं ;
नींद से मेरा.. ताल्लुक़ ही नहीं.. बरसों से...
ख्वाब आ-आ के.. मेरी छत पे.. टहलते क्यूँ हैं ;
मोड़ होता है.. जवानी का.. संभलने के लिए...
और सब लोग.. यहीं आ के.. फिसलते क्यूँ हैं..."
--------------------------- ' राहत इन्दौरी '
Tuesday, April 2, 2013
"ढूँढते ढूँढते.. ख़ुद को.. मैं कहाँ जा निकला... एक पर्दा जो उठा ... दूसरा पर्दा निकला ;
"ढूँढते ढूँढते.. ख़ुद को.. मैं कहाँ जा निकला...
एक पर्दा जो उठा ... दूसरा पर्दा निकला ;
मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर.. तह-ओ-बाला निकला...
गौ़र से देखा.. तो हर शख़्स.. तमाशा निकला ;
एक ही रंग का ग़म.. खाना-ए-दुनिया निकला...
ग़मे-जानाँ भी ..ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला ;
इस राहे-इश्क़ को हम.. अजनबी समझे थे मगर...
जो भी पत्थर मिला .. बरसों का शनासा निकला ;
आरज़ू .. हसरत-ओ-उम्मीद.. शिकायत..आँसू...
इक तेरा ज़िक्र था.. और बीच में क्या क्या निकला ;
घर से निकले थे.. कि आईना दिखायें सब को...
हैफ़ ! हर अक्स में .. अपना ही सरापा निकला ;
जी में था.. बैठ के .. कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’...
तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला ..."
------------------------------ --- ' सरवर '
शनासा = परिचित ,जाना-पहचाना
हैफ़ = हाय
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