रोटी के लिए घूमता रहता हूँ ,
इधर उधर ,
पाँव छिल जाते है ,
रुकता नही हूँ मगर ,
दिल से देगा मुझे कोई उसे भगवान् उसे बहुत देगा
मेरी दुआ है सभी के लिए ,
चाहे कोई बड़ा हो या छोटा ,
मिटटी के खिलौनों से खेलते है बच्चे मेरे ,
गर्मी सर्दी बारिश को हंस कर झेलते है
सर पर छत भी न दे सका अपने बच्चो को
सर पर छत भी न दे सका अपने बच्चो को
बाप में अजीब हूँ
गरीब हूँ में मजबूर हूँ मैं ,
पूरी नही कर पाता बच्चो की इच्छाओ को ,
बहुत ही बदनसीब हूँ मैं ,
गरीब हूँ मैं गरीब हूँ मैं......
@ संजय भास्कर
बहुत ही बदनसीब हूँ मैं ,
ReplyDeleteगरीब हूँ मैं गरीब हूँ मैं...
कभी - कभी यही लगता है ...
सशक्त और प्रभावशाली प्रस्तुती....
ReplyDeleteगरीब होने की व्यथा को अच्छा उकेरा है,आपने.
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