अँधेरे कि तरह सुनसान मेरी ज़िन्दगी...
उस धुएं कि तरह लापता मेरी ज़िन्दगी...
अपने ही जाल में फ़सी मेरी ज़िन्दगी...!!!!
कि सरीफ़ों के महफ़िल में बदनाम मेरी ज़िन्दगी...
भूखे और प्यासे जैसी लाचार मेरी ज़िन्दगी...
कि न्याय और धर्म के बीच लटकती मेरी ज़िन्दगी...
कि जिंदा है जिस्म, पर रूह से मरी मेरी ज़िन्दगी...!!!!
वसंत में भी सूखे सी जंजर मेरी ज़िन्दगी...
मिट्टी के घरोंदों सी कमजोर मेरी ज़िन्दगी...
अमावश में सन्नाटे से चीखती मेरी ज़िन्दगी...
कि हर तरफ है हरियाली पर, वीरान मेरी ज़िन्दगी...!!!!
तन्हाईयों से लिपटी बेजान मेरी ज़िन्दगी...
कि कोयला भी तप कर हिरा बन जाता है...
पर उस कोयले से लिपटी कारीख मेरी ज़िन्दगी...
कि नग्न पड़ी लाश, बिन कफ़न मेरी ज़िन्दगी....!!!!!!
----राहुल राज
बहुत खूबसूरत कविता हैँ
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