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Thursday, January 5, 2012

तुम्हारी हां


मेरी जिद् के बाद ही सही,
तुमने स्वीकार किया था मुझे,
कहकर हां।

तुम्हारे नर्म होठों ने,
जब कहा था हां,
मैनें किया था महसूस,
हर लब्ज़ अपने गाल पर।

पर अब,
जब तुम नहीं हो,
तन-मन से करीब मेरे,
अक्सर कुछ बूंदें,
जिद् कर बैठती हैं,
तुम्हारी हां को,
मेरे गालों से धो देने की।

मेरे बहाने ही सही,
अपने हां को,
डूबने / मिटने से बचा लो,
बस तुम आ जाओ।


  • रवि कुमार बाबुल

3 comments:

  1. मन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने। बधाई।

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  2. चंद पंक्तिया और बेहतरीन अभिव्यक्ति.....

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