तू मेरी जरूरत भी रहा, मेरी आदत भी।
तू ही खुदा था मेरा, मेरी इबादत भी।
दरिया से कतरा मांग कर क्या करता,
यही वक्त का तकाजा है, मेरी चाहत भी।
क्यूं शर्मिंदा रहूं करके इश्क-ए-गुनाह,
सज़ा भी यही है, और मेरी राहत भी।
यादों के टुकड़े जोड़ने की कोशिश में,
हुई कभी जीत, यही मेरी मात भी।
तुम्हारी मुहब्बत सूरज से क्या कह गयी,
उजला हुआ दिन, रौशन मेरी रात भी।
- रवि कुमार बाबुल
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteआज चर्चा मंच पर देखी |
बहुत बहुत बधाई ||
बेहतरीन , लाजवाब गजल
ReplyDeleteवसंत पंचमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ ....
बेहतरीन ग़ज़ल....बहुत खूब.....
ReplyDeleteशानदार ग़ज़ल।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर गजल....
ReplyDeleteबधाई......
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आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
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