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Saturday, January 28, 2012

ग़ज़ल


तू मेरी जरूरत भी रहा, मेरी आदत भी।
तू ही खुदा था  मेरा, मेरी  इबादत भी।

दरिया से  कतरा मांग  कर क्या करता,
यही वक्त का तकाजा है, मेरी चाहत भी।

क्यूं शर्मिंदा रहूं करके इश्क-ए-गुनाह,
सज़ा भी यही है, और मेरी राहत भी।

यादों के टुकड़े  जोड़ने की कोशिश में,
 हुई कभी जीत, यही मेरी मात भी।


तुम्हारी मुहब्बत सूरज से क्या कह गयी,
उजला हुआ  दिन, रौशन मेरी रात भी।


  • रवि कुमार बाबुल


6 comments:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
    आज चर्चा मंच पर देखी |
    बहुत बहुत बधाई ||

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  2. बेहतरीन , लाजवाब गजल
    वसंत पंचमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ ....

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  3. बेहतरीन ग़ज़ल....बहुत खूब.....

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  4. बहुत ही सुन्दर गजल....
    बधाई......
    कृपया इसे भी पढ़े
    नेता,कुत्ता और वेश्या

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  5. आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

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