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Friday, August 9, 2013

"शब्द सवेरे के, अब तक ताज़े हैं "

साँझ के 
झुटपुटे की पंक्तियों में, 
शब्द सवेरे के,

अब तक ताज़े हैं 
चलो, गुलदस्ता बना लेते हैं एक और,
जिंदगी के लिए; 

किसी 
झिडकन के साथ, 
बरसी है
बारिश ये अभी,
कुछ बूंदे हथेली पर, 
कुछ माथे पर हैं, 
अथक श्रम कर रही है जिंदगी ये 
जिंदगी के लिए; 

जो है 
लुटाने को उसे है  तत्पर,
ये मुट्ठी खुल रही है 
पालने  से पैरों  तक का 
सफ़र तय किया है,
अब कितनी अकलमंदी से 
गवां रहे हैं जिंदगी को, 
जिंदगी के लिए

थोड़ी इसे भी राहतें  बख्शें, 
थोड़ी सी धडकनें 
इसकी भी रह सकें साबुत,, 
सिफ़र  कर दें कभी तो चाहतों को 
शेष रख लें कभी तो थोडा समय 
बेनज़र  सी गुजर जाती हुई इस 
जिंदगी के  लिए;

एक चिड़िया 
सुबह जो चहकी थी, 
अभी भी शाख पर दिल की,
वक़्त की दालान में बैठी है 
एक हाथ का ही फासला ये 
चाहें तो फिर से एक बार 
थोड़ी सी गुनगुनाहट लें सहेज,
थोड़ी से चहचहाहट  
जिंदगी के लिए.   

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