गाँव से शहर आकर सादादिल लोगों को अक्सर शहर बड़ा लुभावना और शहरी तेजतर्रार लगते हैं... फिर याद आता है कि अब गाँव में भी गाँव कहाँ रहा है...गंवई राजनीति खून-खराबे, चौपालों के छल और भेदभाव सब भुलाकर... वो जीना चाहता है...शहर को जीतना चाहता है...आगे बढ़ना चाहता है....लेकिन कैसी जीत??? जो अपना ईमान दांव पर लगाकर मिले वो जीत भी भला जीत है???... श्री सी एम त्रिपाठी जी की इन चंद पंक्तियों में गाँव से आकर शहर में बसे किसी ऐसे ही आदमी की पूरी की पूरी ज़िन्दगी हैं.. पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में मुझे कुछ माह उनसे सीखने का मौका मिला...खुशनसीबी है मेरी कि मैं उन्हें बापू जी कह पाती हूँ...
गाँव भीतर से घुना है दोस्तो
शहर लोहे का चना है दोस्तों
उस महल के द्वार पर दस्तक न दोवो सियासत से बना है दोस्तों
जो हमारा ही लहू पीता रहा
वो हमारा सरगना है दोस्तों
रीढ़ की हड्डी नहीं गिरवी रखी
इसलिए ये सर तना है दोस्तों
सी एम त्रिपाठी
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