कैसे कह दूं एतिबार है तुमसे
इनकार नहीं, इक़रार है तुमसे
ग़ज़ल खुद ही समा से उठ बैठी
सारे मिसरे, अशआर है तुमसे
फ़ासला तो इसे नहीं कहते
सिर्फ यही बार-बार है तुमसे
कितने बाग़ों की सैर की मैंने
आँख क्यों अश्कबार है तुमसे
क़मर की चाँदनी तुम्ही से है
कि ख़्याल गुलज़ार है तुमसे
(बार-बार = परेशान होना, क़मर = चाँद )
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