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Sunday, March 20, 2011

राह का रोड़ा,


राह का रोड़ा,
टकराता है कई क़दमों से,
और  बढ़ जाता है आगे,
उन अनगिनत ठोकरों से.
मीलों चला जाता है सिर्फ ठोकरें खाकर
और फिर आ जाता है
किसी पथिक के नीचे,

या कर देता है जख्मी
राह के किसी राही को.

कई वाहनों को एक पल में तबाह कर देता है
और ले लेता है बदला उन्लाखों ठोकरों का


मगर जब वही रोड़ा
दिखता है किसी शिल्पी को
तो ले आता है वो उसे अपने साथ
और दे देता है उस रोड़े को,
एक ऐसा रूप, जो साकार करता है सपने
लाखों मनुष्यों के
और ख़त्म कर देता है उस सिलसिले को
जो ना जाने कब से चला आ रहा था
भगवान् सा यह रोड़ा बिन वजह ही सबको सता रहा था

7 comments:

  1. bhut khubsurat lines hai aur bhut jayda bhaavpur vichar hai...

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  2. रंगों का त्यौहार बहुत मुबारक हो आपको और आपके परिवार को|

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  3. सार्थक और भावप्रवण रचना।

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  4. वह भाई आलोकजी ,
    ' राह का रोड़ा '............बहुत ही सुन्दर ,भावपूर्ण एवं सार्थक अभिव्यक्ति |
    होली की बधाई स्वीकारें

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  5. behtreen kavita...
    aise hi kai raah ke rode jab ikathe ho jaate hain...to shaskon ke sir pe pad ke takht bhi palat dete hain..

    ya fir raah ein hi ikathe ho ke..raah ki hi mitti se jud ke..raah ka hi paani pi ke...kisi raahi ka aashiyan bana sakte hain...ye pathar bhi insaan jaise hain...


    behtreen lagi aapki kavita...main bhiis blog mein apni kavita pesh karna chahunga...kabhi fursat mile to mera bhi blog dekhiyega...shubhkaamnayein
    http://phattphattphatt.blogspot.com/

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  6. प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद
    भरोसा नहीं होता कि आप लोगों को रचना इतनी पसंद आई.

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  7. अपनी बहुत पुरानी और खूबसूरत रचना यहाँ बाटने के लिए धन्यवाद....इसीलिये कहते हैं कि जो कविता कवि को पसंद आये, वो पाठकों को भी ज़रूर पसंद आती है...!

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