दोस्ती कि कितनी झूठी दुहाई दोगे' के
अब दोस्ती के तू आस पास भी नहीं
कितनो को दोस्त कहके तू ने यहाँ लूटा 'कि
अब रहा किसी का तुझ पर विश्वास भी नहीं
कब तक गिनाते रहोगे वो एक एहसान अपना'कि
'मनी'इनको होगा कभी इसका एहसास भी नहीं
तू भी नहीं अब तेरा एहसास भी नहीं
उगते हुए सूरज को तेरी आस भी नहीं
'''''''''''''''''''''''मनीष शुक्ल
वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
ReplyDeleteकिसकी बात करें-आपकी प्रस्तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्ददायक हैं।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार ,,,,,,,,संजय जी
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