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Friday, January 14, 2011

उगते हुए सूरज को तेरी आस भी नहीं,,,,,,,,,,,,,,,,,,

तू भी नहीं अब तेरा एहसास भी नहीं
उगते हुए सूरज को तेरी आस भी नहीं

दोस्ती कि कितनी झूठी दुहाई दोगे' के
अब दोस्ती के तू आस पास भी नहीं

कितनो को दोस्त कहके तू ने यहाँ लूटा 'कि
अब रहा किसी का तुझ पर विश्वास भी नहीं

कब तक गिनाते रहोगे वो एक एहसान अपना'कि
'मनी'इनको होगा कभी इसका एहसास भी नहीं

तू भी नहीं अब तेरा एहसास भी नहीं

गते हुए सूरज को तेरी आस भी नहीं
'''''''''''''''''''''''मनीष शुक्ल

3 comments:

  1. वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

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  2. किसकी बात करें-आपकी प्रस्‍तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्‍ददायक हैं।

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  3. बहुत बहुत आभार ,,,,,,,,संजय जी

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