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Monday, March 28, 2011

नमस्कार ! इस कविता में बनिए से मेरा तात्पर्य केवल एक ऐसे व्यापारी से है जिसके लिए केवल  उसका मुनाफा ही मायने रखता है और उसके व्यापर में भावनाओं का महत्व नाम मात्र ही  होता है

काश के ये दिल एक बनिया होता
काश के ये दिल एक बनिया होता,
हर सौदा इसका फायेदेमन्द होता |
सस्ती बिकती है हर शे इस बाज़ार में,
यही छपता इस दुकान के इश्तेहार में |
हर किसी को दुख बेचने का मिलता न्योता,
काश के ये दिल एक बनिया होता |

सब रिश्ते तराज़ू में तौले जाते,
बनते हर जज़्बात के बही खाते |
लगते जब मोल इश्क़ के जुनून के,
मिलते सिर्फ़ कुछ सिक्के ही खून के |
ना कोई आँख से पानी के आँसू रोता,
काश के ये दिल एक बनिया होता |

दाम होते संग बीते सब दिन और रातों के,
हँसी,आँसू,बिन मतलब के झगड़े,सब बातों के |
चंद मुश्किलों के सामने पड़ जाते हल्के,
कुछ तस्वीरें,बहुत से खत, ये सब मिलके |
एक पलड़े में रख के बेचा जाता सब यादों को,
साथ में दिया जाता मुफ़्त उन अधूरे वादों को |
इन सब को बेच के मैं आराम से सोता,
काश के ये दिल एक बनिया होता |

ना दबा रहता दिल सपनों और ख्वाहिशों के बोझ में,
बेच देता गम पुराने और निकल पड़ता नये की खोज में |
ना तलाशता हमेशा संग रहने वाले वफ़ादारों को,
सजाता रोज़ दुकान और बुलाता रोज़ नये खरीदारों को |
धोखे में ना रहता खुद औरों को ठगा होता,
काश के ये दिल एक बनिया होता |

                                                                              गौरव मकोल

2 comments:

  1. क्या बात है गौरव जी....एक-एक लाइन बड़ी ज़बरदस्त है...कविताबाजी में आपकी शुरुआत शानदार रही..!

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