जिंदगी पे ऐतबार नहीं रह गया
अब मुझे किसी से प्यार नहीं रहा गया
जब गलियों में ही बट रही हों नफरतें
तो दुनिया पे मेरा ऐतबार नहीं रह गया
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अब मुझे किसी से प्यार नहीं रहा गया
जिंदगी पे ऐतबार नहीं रह गया
हर सक्श कि आदतें है , हर इंसान का अंदाजेबयां
यहाँ आपस में कोई करार नहीं रह गया
जिंदगी पे ऐतबार नहीं रह गया
अब मुझे किसी से प्यार नहीं रहा गया
क्यूँ प्यार दिखाते है लोग, क्यूँ दिल बहलाते हैं लोग
जब पैमाना ही फीका देखा मैंने, तो महफ़िल पे खुमार नहीं रह गया
जिंदगी पे ऐतबार नहीं रह गया
अब मुझे किसी से प्यार नहीं रहा गया
घुटन है सडन है और लाखों बंदिशे हैं
प्यार में सिसकियाँ है और कुछ कैद परिंदे हैं
मैं अपनी ही डेमोक्रेसी में सरकार नहीं रह गया
अब किसी से मुझे प्यार नहीं रह गया
जिंदगी पे मेरा ऐतबार नहीं रह गया
जब गलियों में ही बट रही हों नफरतें
ReplyDeleteतो दुनिया पे मेरा ऐतबार नहीं रह गया
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alok ji aapke anubhav ka swagat hai,,,,,,,,,
जो कुछ कहूँगा, सच कहूँगा, बशर्ते आप नाराज़ न हो तो - ग़ज़ल की पहले stanza में पूरी पंक्तियों में तालमेल है किन्तु आगे कुछ दरक सा गया है, थोड़ी और मेहनत की ज़रुरत थी .......... बहरहाल ! काफी कुछ कहती है यह ग़ज़ल. ...... आभार.
ReplyDeleteसमय मिले तो http;//baramasa98.blogspot.com भी देखें और मार्गदर्शन अवश्य करना चाहें. और हो सके तो अनुसरण करने का कष्ट करें. अनेकानेक शुभकामनाओं सहित
कोमल भावों से सजी ..
ReplyDelete..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
आपके बेबाक कमेंट के लिये धन्यवाद सुबीर जी. मैं बस इतना ही कहूंगा कि तुकान्त को भावों से अलग ही रखना चाहता हूं.
ReplyDeleteपढ के अच्छा लगा ,शुक्रिया ।
ReplyDeleteअच्छी कविता है अलोक भाई...!
ReplyDeleteये दुनिया ऐतबार करने लायक है भी नहीं.वास्तविकता को चुटी हुई
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