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Sunday, February 6, 2011

सोचता हूँ महफ़िलों में किस तरह जाऊं....!


सोचता हूँ महफ़िलों में किस तरह जाऊं 
खामोश ही बैठा रहूँ या झूम के गाऊँ

हलके सुरूर में ही अक्सर बहक जाता हूँ
वक़्त है बतला दो मै आऊँ या ना आऊँ

दुश्मन हों या फिर दोस्त हों सब एक जैसे हैं
किसको बुरा कह दूं मै किसकी खूबियाँ गाऊँ

जाने क्यों उसकी निगाहें सूनी सूनी हैं
क्यों ना बनके ख्वाब मै उनमे समा जाऊं

बातें भी  ना हुईं इशारा भी ना हुआ
अब इसको भला कैसे मुलाक़ात कह पाऊँ

एक तरफ जज्बात हैं और एक तरफ है आबरू
ना दूर रह पाऊँ ना उसके पास जा पाऊँ 

वो दूर रहता है तो उसके पास रहता हूँ
वो पास आ जाये तो बताओ कहाँ जाऊं

ये जान लो कि मै अगर ख्वाबों में बह गया
मुश्किल ही है फिर से कभी घर लौट के आऊँ

ख्वाबों में भी आया नहीं वो कई रातों से 
जी चाहता है आज उसके घर चला जाऊं

8 comments:

  1. अब मैं किन लाइनों को अच्छा कहूं....
    असीम की यह कविता मुझे मुहजबानी याद है....
    ............ तुम्हारी बेहतरीन कविताओं में एक असीम

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  2. ख्वाबों में भी आया नहीं वो कई रातों से
    जी चाहता है आज उसके घर चला जाऊं
    असीम भाई ये लाइने आज कल कुछ याद दिलाती है
    लाजवाब खजाने में से एक ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

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  3. thank u alok bhai and manish bhai...!

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  4. cha gayeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee

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  5. .शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।

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  6. sanjay jee namaskar,
    mere blog par padharne aur utsahvardhan hetu aabhar.

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  7. आशु भाई और संजय भाई आपका धन्यवाद...!

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  8. वक़्त है बतला दो मै आऊँ या ना आऊँ
    बेहतरीन

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