खामोश ही बैठा रहूँ या झूम के गाऊँ
हलके सुरूर में ही अक्सर बहक जाता हूँ
वक़्त है बतला दो मै आऊँ या ना आऊँ
दुश्मन हों या फिर दोस्त हों सब एक जैसे हैं
किसको बुरा कह दूं मै किसकी खूबियाँ गाऊँ
जाने क्यों उसकी निगाहें सूनी सूनी हैं
क्यों ना बनके ख्वाब मै उनमे समा जाऊं
बातें भी ना हुईं इशारा भी ना हुआ
अब इसको भला कैसे मुलाक़ात कह पाऊँ
एक तरफ जज्बात हैं और एक तरफ है आबरू
ना दूर रह पाऊँ ना उसके पास जा पाऊँ
वो दूर रहता है तो उसके पास रहता हूँ
वो पास आ जाये तो बताओ कहाँ जाऊं
ये जान लो कि मै अगर ख्वाबों में बह गया
मुश्किल ही है फिर से कभी घर लौट के आऊँ
ख्वाबों में भी आया नहीं वो कई रातों से
जी चाहता है आज उसके घर चला जाऊं
अब मैं किन लाइनों को अच्छा कहूं....
ReplyDeleteअसीम की यह कविता मुझे मुहजबानी याद है....
............ तुम्हारी बेहतरीन कविताओं में एक असीम
ख्वाबों में भी आया नहीं वो कई रातों से
ReplyDeleteजी चाहता है आज उसके घर चला जाऊं
असीम भाई ये लाइने आज कल कुछ याद दिलाती है
लाजवाब खजाने में से एक ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
thank u alok bhai and manish bhai...!
ReplyDeletecha gayeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee
ReplyDelete.शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।
ReplyDeletesanjay jee namaskar,
ReplyDeletemere blog par padharne aur utsahvardhan hetu aabhar.
आशु भाई और संजय भाई आपका धन्यवाद...!
ReplyDeleteवक़्त है बतला दो मै आऊँ या ना आऊँ
ReplyDeleteबेहतरीन