Saturday, December 31, 2011
Tuesday, December 27, 2011
नसीब
हर किसी की आंखों में,
उनका नसीब पढ़ लेता हूं,
कि वह किसी से मिल रहे हैं,
या फिर बिछड़ रहे हैं आज?
रोज देखता हूं,
स्टेशन पर नमी,
जो किसी को लेने आते हैं,
या फिर किसी को छोड़ने आयें हैं,
उनकी आंखों में?
इंतजार मुझे भी है,
खुद के नसीब लिखने का?
जब तुम मुझे लेने आओ,
और हम दोनों,
निचोड़ लें अपनी-अपनी आंखों की नमी,
डूबो दें स्टेशन,
रोक दें रेलगाड़ी,
सदा-सदा के लिये।
- रवि कुमार बाबुल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल/ Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
जीवन गाडी धकरपेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
अक्कड बक्कड
भीड़ भडक्कड
धक्का मुक्की
आटा चक्की
धुन में रमते निकले तेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
जीवन गाडी धकरपेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
एक डिब्बा दो डिब्बा
तीन डिब्बा चार डिब्बा
छुकछुक गाडी
सीटी वाली
जीवन बिन इंजन का रेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
जीवन गाडी धकरपेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
चाट चौपाटी
चोखा बाटी
टैग लगा के
जेब काटी
गली गली में लगी है सेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
जीवन गाडी धकरपेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
देख के मौका
मार दे चौका
दौड संभल कर
लगे न झटका
जीवन बिन अम्पायर खेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
जीवन गाडी धकरपेल
धकरपेल धकरपेल धकरपेल धकरपेल
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
Jiwan gaadi dhakarpel
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
Akkad bakkad
Bheed bhadakkad
Dhakka mukki
Aata chakki
Dhun mein ramte nikle tel
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
Jiwan gaadi dhakarpel
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
ek dibba do dibba
teen dibba chaar dibba
chukchuk gaadi siti wali
jiwan bin engine ka rail
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
Jiwan gaadi dhakarpel
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
chaat chaupaati
choka baati
tag laga ke
jeb kaati
gali gali mein lagi hai sale
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
Jiwan gaadi dhakarpel
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
dekh ke mauka
maar de chauka
daud sambhal ke
lage na jhatka
jiwan bin empire khel
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
Jiwan gaadi dhakarpel
Dhakarpel Dhakarpel Dhakarpel
Neeraj Pal
www.neerajkavi.blogspot.com
समझदारी
हालात की आंच में..जिम्मेदारी के बर्तन...जब उम्र का दूध खौलता तो...उसमे समझदारी की बहुत मोटी मलाई पडती है...
Monday, December 26, 2011
चाहा था उन्हें
कसूर इतना था कि चाहा था उन्हें
दिल में बसाया था उन्हें कि
मुश्किल में साथ निभायेगें
ऐसा साथी माना था उन्हें |
राहों में मेरे साथ चले जो
दुनिया से जुदा जाना था उन्हें
बिताती हर लम्हा उनके साथ
यूँ करीब पाना चाहा था उन्हें
किस तरह इन आँखों ने
दिल कि सुन सदा के लिए
उस खुदा से माँगा था उन्हें
इसी तरह मैंने खामोश रह
अपना बनाना चाहा था उन्हें |
- दीप्ति शर्मा
Sunday, December 25, 2011
Friday, December 23, 2011
फिर तेरी याद आयी
भीनी भीनी सी मिट्टी की महक आयी
ओस की बूंदों से पत्तो पर चमक आयी
पीछे मुड़कर जब देखा मैंने
तो याद तेरी फिर आयी
अँधेरे को दूर कर सूरज की रोशनी आयी
सन्नाटे को चीरती चिडियों की चहचाहट आयी
राज कई बंद हैं सीने में मेरे
और उन्हें खोलने हँसी तेरी फिर आयी
तेरी बातो का जादू हैं कुछ ऐसा
पत्थर भी सुनने लगे हैं ये कुछ ऐसा
मधुशाला की और बढ़ते हुए मेरे कदमो को रोकने
तेरी नशीली निगाहे फिर आयी
तेरी जुल्फों की छाव ले आये
सोचा था फिर होगी मुलाकात तुझसे
पर तुझे मुझसे छिनने
ज़माने के ये रिवाज फिर आये .
(चिराग )
Wednesday, December 21, 2011
मनी'ये अपने लोग है जिनकी दुआए साथ चलती है जब तक न हों पूरा सफ़र,सफ़र छोड़ा नहीं जाता
अपनों को राहों में यू ही छोड़ा नहीं जाता
रिश्ता बनाया जाता है रिश्ता तोडा नहीं जाता
माना की फासले भी अब बढ़ गए है बहुत
फसलो के डर से रुख बस्ती से मोड़ा नहीं जाता
मनी'ये अपने लोग है जिनकी दुआए साथ चलती है
जब तक न हों पूरा सफ़र,सफ़र छोड़ा नहीं जाता
अपने ही लोग है जो तारीफों के पुल बाधते थकते नहीं
और पुल से गुजरा जाता है पुल तोडा नहीं जाता
हों सकता है कभी उनसे भी हों जाये कुछ खामिया
आखिर वो भी इंसान है और इंसानों का दिल तोडा नहीं जाता
` ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,मनीष शुक्ल
Monday, December 19, 2011
अदम गोडवी जी को शत शत नमन
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
Sunday, December 18, 2011
ये कौन सा देश है
ये सोने की चिड़िया भारत था,
अब देश बना कंगालों का है।
चन्द्रगुप्त का अद्भुत भारत,
अब देश बना गद्दारों का है॥
नेतृत्व नैतिकता भूल चुका है,
जनता मूर्ख बनी बस सोती है।
अपने अधिकारों को आश्वासन के,
चरणामृत में घोलकर पीते हैं॥
Saturday, December 17, 2011
मनी'ये तय है की एक दिन तुम खुद को साबित करोगे ,जीतोगे मगर इस आज का क्या जो , बड़ी बेदर्दी से झीना जा रहा है यहाँ
'मनी'क्या ऐसा भी होता है कही जैसा हो रहा है यहाँ
बचपन को कुचला मासूमियत को लूटा जा रहा है यहाँ
जिन बच्चो के हाथ अभी सही से झुनझुना बजाना भी नहीं सीखे
वो खुद को मिटा के सबकुछ भुला के घर का खर्च उठा रहे है यहाँ
अजीब रहमो करम पे जिन्दा है ये ,ये कैसी दुआए है
की किसी की भी दुआ इनके काम नहीं आ रही है यहाँ
इतना कठिन देखकर ये सब भावो से भर जाता हू मै ,कभी कभी रो जाता हू,मनी '
फ़रिश्ते कहू या दुनिया के सबसे होनहार जिन्हें कोई मौका नहीं दिया जा रहा है यहाँ
मनी'ये तय है की एक दिन तुम खुद को साबित करोगे ,जीतोगे
मगर इस आज का क्या जो , बड़ी बेदर्दी से झीना जा रहा है यहाँ
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,मनीष शुक्ल
Thursday, December 15, 2011
Wednesday, December 14, 2011
आंसू की कीमत
किसी ने आंसू की कीमत ना पहचानी,
जब मन में सैलाब उठा ,बह चला आँखों से पानी!
गालों पे धुलाकता रहा,दुनिया की निगाहों से छुपता रहा,
गालों पे सुख के चल पड़ा राह अनजानी!
किसी ने मोती मन तो किसी ने पानी ,
पर ना ये मोती है और ना ही पानी !
सुनी सब के मुहं ये कहानी ,आंसू तो एक अनमोल प्राणी
किसी ने आंसू की कीमत ना पहचानी!
Monday, December 12, 2011
तेरा दीवाना भोलापन मुझको बहुत सताता है
मनी'चुपके चुपके ये मेरे खाव्बो में भी आता है
कभी मै तुमसे नजर मिलाऊ कभी मै पुछू कैसी हों
सच कहता हू जानेमन ऐसी हिम्मत दे जाता है
और कभी दिख जाती हों तुम जाती मुझको सडको पर
कुछ तो कहते फिर चूके तुम ,ये तक कहने आता है
जब कभी मै उलझा होता हू या घबरा जाता हू
तब आकर ये मुझको अच्छे से समझा जाता है
मनी'जब पता चलेगा तुमको न जाने तुम क्या सोचोगी
यही सोच डर जाता हू शायद इसीलिए पीछे हट जाता हू
तेरा दीवाना भोलापन मुझको बहुत सताता है
मनी'चुपके चुपके ये मेरे खाव्बो में भी आता है
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,मनीष शुक्ल
Wednesday, December 7, 2011
तू भी नहीं अब तेरा एहसास भी नहीं ,उगते हुए सूरज को तेरी आस भी नहीं
तू भी नहीं अब तेरा एहसास भी नहीं
उगते हुए सूरज को तेरी आस भी नहीं
दोस्ती कि कितनी झूठी दुहाई दोगे' के
अब दोस्ती के तू आस पास भी नहीं
कितनो को दोस्त कहके तू ने यहाँ लूटा 'कि
अब रहा किसी का तुझ पर विश्वास भी नहीं
कब तक गिनाते रहोगे वो एक एहसान अपना'कि
'मनी'इनको होगा कभी इसका एहसास भी नहीं
तू भी नहीं अब तेरा एहसास भी नहीं
उ
गते हुए सूरज को तेरी आस भी नहीं
'''''''''''''''''''''''मनीष शुक्ल
Monday, December 5, 2011
लिख रहीं हूँ एक ग़ज़ल मैं
लिख रहीं हूँ एक ग़ज़ल मैं ,
आवाज दे अपनी सामने लाऊँगी
तैयार कर धुन उसकी
सबको वो ग़ज़ल सुनाऊंगी
अभी तो लिख रही हूँ फिर
बाद परीक्षा के सुना पाऊँगी
लिख रहीं हूँ एक ग़ज़ल मैं
आवाज़ दे अपनी सामने लाऊँगी
कुछ महकी बात सुनाऊंगी
कुछ हँसाती सी कुछ रुलाती सी
वो ग़ज़ल जल्द ही ले आऊँगी
थोडा इंतज़ार कर लीजिये
फिर तो इसकी धुन मैं
आपके कानों तक पहुंचाऊँगी
बस मैं गुनगुनाती जाऊँगी
लिख रहीं हूँ एक ग़ज़ल मैं
आवाज़ दे अपनी सामने लाऊँगी
तो मिलते हैं परीक्षा के बाद !!!!!!!!
- दीप्ति शर्मा
Sunday, December 4, 2011
क्या मैंने चाहा और क्या पा लिया?
मन के कुछ भावों में से एक ये भी है,एक लड़की के मन में उठने वाली दुविधा को मैंने शब्द देने का प्रयास कर रही हूँ----
क्या मैंने चाहा और क्या पा लिया?
खुदा से दुआओं में तुमको माँगा,
मेरी दुआओं में रंग आया,
और जिंदगी में पाया तुमको!!
अपने जीवन का केंद्र बिंदु बनाया तुमको,
पर तुमने सदैव वसुधेव कुटुम्बकम का राग आलापा,
वक्त ने कैसे दोराहे पे किया खड़ा,
तुममे अपनी खुशियाँ धुंडू या तुम्हारी खुशियों को अपना मानूँ,
तुम्हारे लिए सबकुछ छोड़ा,
पर तुमको कैसे छोडूँ?
इतनी निस्वार्थी कैसे बनूँ!!
तुमको छोड़ नहीं सकती,
तुम्हारी खुशियों को अपना नहीं सकती,
तो सोचने पे मजबूर हूँ,
क्या मैंने चाह और क्या पा लिया ?
Thursday, December 1, 2011
मै भला हू या बुरा रहने दो ,,,,,,,,
मै भला हू या बुरा रहने दो
मै जैसा हू वैसा बना रहने दो
मुझको दिए है तुने तोहफे बहुत
मै भूला हू वो सब भूला रहने दो
शराफत है कितनी तुझमे पता है
बस एक पर्दा है पड़ा रहने दो
अब दर्द में आवाज़ मत दो मुझे
बेवफा बोला था बेवफा ही रहने दो
'मनी' आजकल बहुत हँसता हू मै
दूर रखो खुदको मुझे जुदा रहने दो
........मनीष शुक्ल
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