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Thursday, June 30, 2011

अस्‍वस्‍थ्‍य होने के कारण ब्‍लॉग जगत से दूर हूँ








  आप सभी ब्लॉगर साथियों को मेरा ..........सादर नमस्कार ..
आज कल अस्‍वस्‍थ्‍य होने के कारण करीब १९ जून से ब्‍लॉग जगत से दूर हूँ बुखार के चलते मुझे टायफाइड हो गया और फिर निरन्‍तर स्‍वास्‍थ्‍य में गिरावट के चलते कल तक तो मैं बात करने में भी काफी दिक्‍कत महसूस कर रहा था परन्‍तु स्‍वास्‍थ्‍य सही नहीं होने के बावजूद मैं आप सभी को निरन्‍तर याद करता रहा आज स्‍वास्‍थ्‍य कुछ ठीक होने पर सोचा अपने अस्‍वस्‍थ्‍य होने की सूचना ब्‍लॉग पर अपने शुभचिंतकों को दे सका हूँ ...।
आप सभी शुभकामनाओं के साथ मैं शीघ्र ही स्‍वास्‍थ्‍य हो जाऊंगा !
आपका अपना 
संजय भास्कर

Wednesday, June 29, 2011

सावन


हिना लगे हाथों से,
मेरी उम्मीदों सी बरसती,
कुछ बूंदों को।
तुमने जब,
हथेली में रख कर,
उछाला था मेरी तरफ।
तब लगा था,
कोई बता दे सावन,
इसे ही कहते है?
जब कोई हिना का रंग,
बरसती बूंदों में घोल कर,
मुझको सराबोर कर रहा था?

रविकुमार बाबुल 
ग्वालियर

Sunday, June 26, 2011

इजाजत


मैंनें बरसते हुये पानी में,
दी थी इजाजत उसको?
चाहता है तो,
छोड़कर चला जाये मुझे,
मेरे आंखों की नमी,
जंजीर न बन जाये कहीं,
ुउसकी?
बस इतना- सा स्वार्थ,
उसकी चाह में ,
मेरा भी रहा था,
बारिश में इजाजत देने का?

रविकुमार सिंह

Saturday, June 25, 2011

अपराधी


तुमने ही कहा था कभी,
जो प्रेम छिपाये  वो अपराधी।
और जब मैंनें ,
जतला दिया,
मुझे है प्रेम तुमसे,
तब भला क्यूं,
तुम्हारी निगाह में,
मैं अपराधी हो गया?

  • रविकुमार सिंह

नफरत


जिस शिद्दत से,
मैंनें किया है,
उसको प्रेम।

उतनी ही शिद्दत,
मुझे देखने को मिली,
उसकी नफरत में।

साथ रह कर भी हम,
न बदल पाये एक दूसरे को?
न मैं नफरत कर पाया उससे,
न वो प्रेम कर पायी मुझसे।


  • रविकुमार सिंह


Thursday, June 23, 2011

कोशिश


जिसने चाहा मुझको,
उससे मैंने कभी,
मिलना ही नहीं चाहा?

जिसको चाहा मैंने,
उसने कभी कोशिश नहीं की,
मिलने की।

-रविकुमार बाबुल 
ग्वालियर

Sunday, June 19, 2011

कुछ शब्द बरसे हैं, जो शायद वह चुन ले ..........।


यादें

बरसो बादल, जमकर बरसो?
मेरी आंखों से बरसते,
तन्हाई के बादल,
कोई बरसता हुआ न देख ले?
मालूम है,
वह नहीं भींगती है अब,
यादों में मेरी?
महफूज होगी वह,
बगैर मेरे भी?
फिर भी तमन्ना है मेरी,
बस एक बार फटे बादल,
और वह जिस्म ओढ़ ले मेरा,
सांसें दे दूं अपनी उसको?
ताकि ताऊम्र मेरी याद में,
बह बरसती रहे।
और मैं,
तमाम बूंदों की शक्ल अख्तियार कर,
उसे भींगोता रहूं,
बन कर याद।

रविकुमार बाबुल 
ग्वालियर


भींगते कुछ ख्वाब

बारिश में भींगते कुछ ख्वाब मेरे,
खो गये है कहीं,
मेरी आंखों से टपक कर?
जब तुम कागज की किश्ती
बहा रही हो?
और बहता यह ख्वाब,
कहीं मिले तुम्हें
तुम इसे अंजुरी में रख,
सच कर लेना,
इन बूंदों को मोती कर देना?

रविकुमार बाबुल 
ग्वालियर

साजिश

बारिश की साजिश नहीं थी,
पता था उसे,
मेरी आंखों का नसीब?
जब दिल का गम,
आंखों से बह आया था,
पढ़ लिया था बारिश ने?
तुमने ज्यों अपनाया नहीं मुझको,
पलकों ने भी,
इन बूंदो को कहां गले लगाया?
आज मैंने,
अश्कों को दरिया बना लिया,
तेरी तमाम यादों की किश्ती को
बहा दिया।

रविकुमार बाबुल 
ग्वालियर
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  • चित्र गूगल से साभार 

Tuesday, June 14, 2011

यादें हरी-भरी


रविकुमार बाबुल



उसके लिखे खत को,
बहते पानी में बहाया था तुमने,
लेकिन मैं तुम्हारे लिखे खत,
बहाऊंगा नहीं?
ताऊम्र जलता रहा हूं,
तेरी याद में,
तो फिर क्यूं न तेरा खत भी
मैं जला दूं?
बनकर यह बादल,
बरस जायेगें यह,
उस तरह जैसे,
बरसती रही है तेरी याद में,
आंखे मेरी?
वक्त की मिट्टी पर,
कुछ यादें हरी-भरी रहेंगी सदा,
खुशबू उनकी,
तुम भी महसूसना,
मैं वहीं किसी गुलाब पर
तुम्हारी खुशबू के पीछे,
जब जख्मी हो रहा होउंगा?

Thursday, June 9, 2011

................बूढी पथराई आँखें



बूढी पथराई आँखें
एक टक त़कती
सूनी राहों को
जहाँ फैला है
सूनापन
इनकी खाली
जिंदगी सा
ये सूनापन ये तन्हाई
अब गैर नहीं
रोज़ मिल जाया करती है
वृद्धाश्रय के
गलियारों में
जहाँ ये आँखें
ढूँढती रहती है
बीते समय के निशान
यहाँ खो गए
सब रिश्ते नाते
रुखी, सल पड़ी
चमड़ी से खोई
नमी जिस तरह
हो चुकी है अब
शिथिल भावनाएँ
जू हुई जाती है शिथिल
चेतना तन की
फिर भी अक्सर
जतन से
जाकर कई बार
खिड़की के पास
ये बूढी पथराई आँखें
घंटों एक टक
तका करती है
इन सूनी राहों को
की बी
इन राहों पर
आता हुआ कभी कोई
अपना भी दिखे
अक्सर यूँही
ये बूढी पथराई आँखे....
तकती रहती है
इन सूनी राहों को............!!


 आप सभी ब्लॉगर साथियों को मेरा सादर नमस्कार .......लगभग दस दिन के अवकाश के बाद मैं आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ । और अपनी दीदी की एक कविता पढवाता हूँ उम्मीद है आप सभी को पसंद आएगी ...!




कवि परिचय :-
रानी विशाल दीदी

Monday, June 6, 2011

नसीब // रिश्ते



नसीब

मेरे नसीब ने जब चाहा था,
तुझको मुझसे छीन लेना।
मैंने चुराकर वक्त की नजरों से,
तेरी यादों को बो दिया था।

अब दिल मैं चुभता है कुछ,
यकीनन यह वो कांटा होगा,
जो फूलों की चाह में उग आया था?
तुमसे जुड़ी हर याद को
सम्हाले रखने की जिद् में।

रविकुमार सिंह
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रिश्ते

जानता हूं मैं,
रिश्ते बदलने में
महारत हासिल है?
इसलिये,
मैंने उसके सामने,
उससे अपना रिश्ता,
बचा लिया?
अपने चाहने को
जब मैंने छिपा लिया?

रविकुमार सिंह
http://babulgwalior.blogspot.com/


होना ही था




यह तो होना ही था।
तुझको तो खोना ही था।

मेरा ख्वाब थीं तुम लेकिन,
ख्वाब, ख्वाब होना ही था।

सौंप दिया तुझको सब कुछ,
दिल को रोना ही था।

मैंने कहा नहीं इश्क, तुझको
मुहब्बत कहां होना ही था।

बिछडऩे की सजा मेरे हिस्से,
तुझको बरी होना ही था।

रविकुमार सिंह
http://babulgwalior.blogspot.com/

गजल




पाक दिल जो होता है आदमी।
जख्म वही अपने लिखता है आदमी।

कभी-कभी शब्द होते हुये भी,
तब मौन क्यूं रहता है आदमी।

रिश्ते जब भटक जायें रास्ता अपना,
यूं रिश्तें क्यूं तोड़ता है आदमी।

यादें ले जाना, जब जाना तुम,
वर्ना रोज-रोज मरता है आदमी।

मुद्दतों सोचा सांझा कर लूं बातें पर,
कब दिल की सुनता है आदमी।

रविकुमार सिंह
http://babulgwalior.blogspot.com/

मैं अनपढ़ा रह गया?


पीड़ा

कब मांगा था मैंने,
तुमसे तुम्हारा जिस्म?
कब की थी चाह या कोशिश
तुम्हें छूने की मैंने?

चाहा था तो बस इतना,
तुम्हें इतना पवित्र रख सकूं?
तुम्हारी पूजा भी कर लूं,
तुमसे ही मन्नतें भी मांग सकूं?
लेकिन देर से समझा मैंने,
मंदिर में किसी मूर्ति का खण्डित होना,
कितनी पीड़ा देता है,
आस्था को?
आज मेरा विश्वास भी
उतना ही दर्द दे गया मुझको,
तुम्हारे साहित्यिक दिल,
और पढ़े-लिखे दिमाग के बावजूद,
जब मैं पूरा का पूरा अनपढ़ा रह गया?

रविकुमार सिंह
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जन्नत


जन्नत

मैं जहन्नुम जाना चाहता हूं,
इसलिये की,
मैं बुरा हूं।
मित्र, तुम गलत हो।
मैं तो जहन्नुम,
इसलिये जाना चाहता हूं?
कि इस धरा पर,
न मैं उसके जैसा हो पाया,
और न वो मेरे जैसा?
शायद,
वहां ही किसी को
अपने जैसा बना दूं।
जहन्नुम को जन्नत बना लूं?

रविकुमार सिंह
http://babulgwalior.blogspot.com/

Thursday, June 2, 2011

इंसाफ



रविकुमार बाबुल


हां मैं अपराधी हूं,
मैंने अपराध किया है,
तुमसे पूछे बगैर,
तुम्हीं से प्यार करने का?

मेरे मुंसिफ हो तुम्हीं ,
प्यार को स्वीकार कर,
मेरे साथ इंसाफ कर देना?
या फिर करके इंकार ,
खुद अपराधी हो जाना?
तुम्हारे इस गुनाह की,
ताउम्र मैं,
सजा काट लूंगा?